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Ritual Games

Ritual Games

 खेल
खेल के लिए "क्रीड़ा", "प्ले", "स्पोर्ट्स" या फिर "गेम" शब्द का प्रचलन वर्तमान समय में है । खेल एक ऐसी विधा है जिनसे कोई भी मानव समाज या राष्ट्र अछूता नहीं हैं, क्योंकि किसी भी राष्ट्र या अंचल में मनोरंजन का प्रमुख व सशक्त साधन कोई है तो वह है 'खेल'। प्रत्येक मौसम में हर एक पल अनेकों खेल सहज ही मनोरंजन हेतु उपलब्ध हो जाते हैं । मनोरंजन की अनुभूति हेतु विशेष आडम्बर या पूर्व तैयारी की आवश्यकता नहीं होती। खेल किसी भी समुदाय या पृष्ठभूमि पर दो या दो से अधिक व्यक्तियों द्वारा मनोरंजन हेतु किया गया व्यवहार मात्र है। खेल केवल मानव समाज में ही नहीं, अपितु पशु पक्षियों और छोटे जीव जन्तुओं में भी प्रचलित है, जैसे कबूतरों की उड़ान ,कुत्तों का गात खेलना, नर मादा के मध्य प्रणय लीला के अवसर में .....।

मनव के लिए खेल उतना ही महत्वपूर्ण एवं अनिवार्य है जितना भोजन और शिक्षा, जो मानव जितना अधिक खेलता है उनका शारीरिक व मानसिक विकास उतना ही अधिक होता है। जीवन में परिस्थिति के अनुकूल संघर्ष करने की प्रवृति, स्फूर्ति, लक्ष्य प्राप्ति हेतु इच्छाओं में दृढ़ता व असफलता को सहज ही स्वीकार कर लेने की क्षमता बढ़ जाती है। कहा जाय तो शारीरिक व मानसिक विकास के लिए खेल एक तरह की औषधि है। खेल से मनुष्य की व्यायाम, योग व कसरत की आवश्यकता की पूर्ति हो जाती है। किसी भी राष्ट्र या अंचल में अनेक प्रकार के खेल प्रचलित है, जो गांव की किसी चैपाल से लेकर अन्तराष्ट्रीय स्तर तक विद्यमान है। "क्रीड़ा" या "स्पोर्ट्स" की संज्ञा से सम्बोधित होने वाले उक्त खेलों के दो रूप् मानव समाज मे प्रचलित है-

1. पारंपरिक खेल अर्थात लोक खेल

2. परिष्कृत या आधुनिक खेल

पारम्परिक खेल अर्थात लोक खेल, वह खेल है जिसकी परंपरा हजारों वर्ष पुरानी होती है, जिसका न जन्मदाता का पता होता है न जन्मभूमि का। उक्त खेल किसी भी पुरस्कार या उपलब्धि की चाह बिना मात्र खिलाड़ियों के मनोरंजन हेतु खेलते- खेलते एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी मे हस्तांतरित होते हैं, जिसके लिए न खिलाड़ी शब्द अनिवार्य होता है और न ही प्रशिक्षण। सैंकड़ों हजारों वर्षों से मानव समाज में पीढ़ी दर पीढ़ी विकास करते आ रहे उक्त खेलों में न विशेष नियम होते हैं न विशेष शर्तें। उन्हे हम जन-जन का खेल या ग्रामीण खेल भी कहते हैं। लोक संस्कृति मे प्रचलित पारंपरिक खेलों में से कुछ एक खेलों में सुविधानुसार विद्वानों ने अपनी कल्पनाओं से संशोधन कर दिया है। खेलों की निश्चित सीमा रेखा तो बनाई साथ ही स्पर्धा को ध्यान मे रखते हुए, नियम, शर्ते भी सुनिश्चित कर दी। ऐसे ही खेलों को शासन का संरक्षण प्राप्त हुआ, पर्याप्त प्रचार भी मिला। उनका आयोजन योजनाबद्ध ढंग व विशेष आडम्बर के साथ होने लगा। यही परिष्कृत या आधुनिक खेल हैं। बीसवीं सदी की समाप्ति में विश्वव स्तर पर समीक्षा की जाय तो आधुनिक खेलों की लोकप्रियता अपनी चरम सीमा पर और पारंपरिक अर्थात लोक खेल लुप्त प्रायः स्थिति में हैं।

वर्तमान स्वरूप

खेल की स्थिति व लोगों की मानसिकता पर सदियों से चली आ रही एक कहावत है।

पढ़ोगे-लिखोगे बनोगे नवाब।
खेलोगे-कूदोगे बनोगे खराब।।

उक्त कथ्य आज गलत सिद्ध हो चला है। शिक्षा के सदृश्य्य खेल भी महत्वपूर्ण है। वर्तमान समय में अनेकों ऐसे आधुनिक खेल अस्तित्व में है जिनकी लोकप्रियता शिखर छू रही है। उनके खिलाड़ियों की पहचान विश्वस्तर पर है। कुछ एक खेल इतनी अधिक लोकप्रियता हासिल कर चुके हैं कि उक्त खेल में हार या जीत राष्ट्र की प्रतिष्ठा हेतु प्रश्न बन जाती है। विभिन्न देश व विभिन्न भाषा-भाषी, विभिन्न पंथ, समुदाय व धर्म-जाति को एक मंच पर लाकर खड़ा करने में खेल की भूमिका अहम् बन चुकी है।

वर्तमान समय मे खेल उस ऊंचाई पर है कि प्रतिदिन प्रचार-प्रसार का कोई भी साधन या माध्यम, खेल गतिविधियां के बिना पूर्ण होता ही नहीं। प्रतिदिन खेल के पीछे शासन के करोड़ों रूपये व्यय हो जाते हैं। वहीं आय की दृष्टिकोण से खेल आयोजन व उनके विभिन्न पक्ष अनेकों लोगों के लिए करोड़ों का व्यवसाय कर रहे हैं। ऐसे अनेक लोग हैं, जिनके जीवन में अर्थ के मुख्य स्त्रोत ही खेल पर केन्द्रित हो चुके हैं। गाँवों की पाठशाला मे अनिवार्य रूप से प्रतिवर्ष खेल स्पर्धाएं होतीं हैं। जिससे सशक्त खिलाड़ी विकासखंड स्तर से जिला स्तर पर और फिर राज्य स्तर पर अपनी योग्यता का लोहा मनवाते हैं। उधर शहर व नगर की प्रत्येक पाठशाला व महाविद्यालय में ऐसी स्पर्धाऐं होती ही रहतीं हैं। शिक्षारत विद्यार्थियों तथा शिक्षण संस्थान से पृथक भी खेल स्पर्धा व प्रदर्शन का अस्तित्व राष्ट्र में है। जिनमें अनेक समारोह विख्यात हैं। स्पर्धा व प्रदर्शन के दृष्टिकोण से विशाल स्वरूप लिए ओलम्पिक व एशियाड का आयोजन स्वर्ग तुल्य है जिसमें सम्मिलित होना खिलाड़ियों के लिए स्वप्न व विजेता बनना वरदान प्राप्त करने जैसा है। प्रत्येक गांव में एक दो खेल संस्थाएं निश्चित ही सक्रिय हैं। वहीं शहर व नगर में सैंकड़ों संस्थाएँ, समिति या क्लब भिन्न भिन्न रूप मे जड़ जमाए हुए हैं। शासन द्वारा पंजीकृत खेल संस्थओं व समितियों को उचित अनुदान प्राप्त हो रहा है। निजी कंपनियों व कारखानों द्वारा आयोजन हेतु विज्ञापन के माध्यम से आर्थिक सहयोग सहज ही उपलब्ध हो रहा है।विभिन्न राष्ट्रों में सैंकड़ों खेल शासन द्वारा पर्याप्त संरक्षण प्राप्त कर रहे हैं। देखा जाये तो खेलों के संरक्षण में भी प्रशासनिक अमला सक्रिय है। जहां एक तरफ केन्द्र व राज्य स्तर पर मंत्री मनोनित हैं, वहीं दूसरी तरफ प्रत्येक विद्यालय व महाविद्यालय में खेल प्रशिक्षक नियुक्त है। सफल खिलाड़ियों के लिये महत्वपूर्ण पुरस्कार, शासकीय एवं गैर शासकीय संस्थान में नौकरियों का अवसर है। देखा जाय तो वर्तमान समय में खेल और खेल से जुड़ें व्यक्तियों का भविष्य उज्जवल है क्योंकि खेल में जाति, पंथ, समुदाय या धर्म से नहीं बल्कि खिलाड़ियों का मूल्यांकन योग्यता से होता है ओर उन्हें सम्मानजनक स्थान प्राप्त होता है।

लोक
लोक शब्द अंग्रेजी में Folk का पर्यायवाची है। डा. वासुदेव शरण अग्रवाल के अनुसार - लोक हमारे जीवन का महासमुन्द्र है। उसमें भूत, भविष्य, वर्तमान सभी कुछ संचित रहता है। लोक राष्ट्र का अमर स्वरूप है। अर्वाचिन मानव के लिए लोक सर्वोच्च प्रजापति है। लोक, लोक की धात्री सर्वभूत माता पृथ्वी और लोक व्यक्त रूप मानव यही हमारे जीवन का अध्यात्म शास्त्र है। इसका कल्याण हमारी मुक्ति का द्वार और निर्वाण का नवीन रूप है। डा. हजारी प्रसाद द्वीवेदी ने लोक के संबंध में अपने विचार व्यक्त करते हुए लिखा है कि "लोक" शब्द का अर्थ "जनपद" या "ग्राम्य" नहीं है, बल्कि नगरों और गांवों में फैली हुई वह समूची जनता है, जिनके व्यवहारिक ज्ञान का आधार पोथियां नहीं है। ये लोग नगर में परिष्कृत रूचि संपन्न तथा सुसंस्कृत समझे जाने वाले लोगों की अपेक्षा अधिक सरल और अकृत्रिम जीवन के अभ्यस्त होते हैं और परिष्कृत रूचि वाले लोगों की समूची विलासिता और सुकुमारिता के जीवित रखने के लिए जो भी वस्तुएं आवश्यक होती हैं , उनको उत्पन्न करते हैं ।

धार्मिक दृष्टिकोण से "लोक" का तात्पर्य उस सम्पूर्ण पृष्टभूमि से है, जहाँ मानव निवासरत है। लोक मानव समाज का वह अतीत काल है, जिसका अस्तित्व आज भी विद्यमान है।लोक खेल - किसी भी रास्ट्र या अचंल में मानव उदभव के साथ मंनोरंजन के अनेकों साधन अस्तित्व में आये। प्रमुखत: लोक गीत, लोक नृत्य, पहेलियां व लोक खेल। लोक खेल जिसे ग्रामीण, पांरपरिक , प्राचीन या जन- जन का खेल भी कहा जाता है।लोक खेल, लोक संस्कृति में महत्वपूर्ण नहीं बल्कि विशिष्ट विधा है, जिनका व्यापक रूप लोक में व्याप्त है। आधुनिक अर्थात शासन द्वारा संरक्षित खेलों की चकाचौंध में लोक खेल भले ही लुप्त प्राय स्थिति में है, किन्तु लोक खेलों के बिना लोक संस्कृति का स्वरूप निर्धारण संभव नहीं हैं।किसी भी रास्ट्र या अंचल की लोक संस्कृति को समुद्र माना जाये तो लोक खेल उनमें समाहित प्रमुख नदियों में से एक है। दूसरे अर्थ में समुद्र रूपी संस्कृति के मंथन से जो रत्न प्राप्त हुए उनमें से एक है लोक खेल।लोक खेल, जन समुदाय में प्रचलित वह खेल है, जिसकी परम्परा हजारों वर्ष पुरानी होती है, जो सुनिश्चित अवधि व मैदान की सुनिश्चित सीमा रेखा से मुक्त होता है। जन साधारण द्वारा सहज रूप से खेले जाने के कारण इनमें सामाग्री अथवा खिलाड़ियों की संख्या सुनियोजित न होकर त्वरित उपलब्ध आधार होती है। लोक खेलों में स्वस्थ मनोरंजन की अनुभूति खिलाड़ियों का लक्ष्य होता है, किसी प्रकार का पुरस्कार या उपलब्धि नहीं ।लोक संस्कृति के विशाल स्वरूप में लोक खेल मात्र खेल तक ही सीमित न होकर लोक साहित्य में भी स्थान रखता है। जिसका प्रयोजन है कुछ एक लोक खेलों में गीतों का प्रचलन।उक्त विशेषता से ही लोक खेल लोक संस्कृति में अन्य विधाओं के अपेक्षा विशिष्ट बन गया है।

उत्त्पत्ति
पृथ्वी पर जिन चित्रों का आरेखन आदि काल में हुआ और वर्तमान काल में हो रहा है।उनकी परंपरा हजारों वर्ष पुरानी हो सकती है किन्तु जन्मदाता या सृजनकर्ता सभी के पीछे है। यह और बात है कि किसी ने कल्पना की, किसी ने चित्रांकित किया, किसी ने रंग भर दिया और किसी ने सहेज कर रख दिया।मानव समाज प्रारभ से ही कल्पानाशील, चितंनशील व रचयिता रहा है। आवश्यकतानुसार अविष्कार कर लेने की प्रवृत्ति इनमें स्वभाविक रूप से विद्यमान है। ऐसे ही प्रवृत्तियों के परिणाम स्वरूप लोक खेलों की रचना हुई, कहा जाय तो लोक खेल मानव उदभव के साथ पशु - पक्षियों की व्यवहार के अनुकरण से, रचयिताओं द्वारा स्वाभाविक रूप से उदभूत है। मानव का मनोरंजन हेतु किया गया व्यवहार जिसे अनेकों ने स्वीकृति दी, जो एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुंचा और पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित व संरक्षित होते हुए कालान्तर में वह लोक खेल बन गया। मनोरंजन के द्दष्टिकोण से ऐसे ही अनेकों खेलों का उदभव हुआ और वे स्थापित हो गए।

स्वरूप एंव विकास क्रम

लोक संस्कृति की स्वरूप निर्धारण में लोक खेल सदा ही उपेक्षित रहा। विद्वानों ने लोक संस्कृति की अन्य विधाओं पर पर्याप्त चिंतन किया किन्तु लोक खेलों को विशेष महत्व नहीं दिया। न खेलों का पर्याप्त संकलन किया गया और न ही उक्त विषय पर अत्याधिक लिखा गया, परिणाम स्वरूप सैकड़ों हजारों वर्षों से चले आ रहे लोक खेल लुप्त होते गये।किसी भी क्षेत्र की लोक संस्कृति हो, स्वस्थ मनोरंजन ही लोक खेलों का मूल उद्देश्य है। लोक खेलों में उपलब्धि या पुरस्कार नहीं होता, किन्तु खेल के अन्त में कुछ ऐसी व्यवस्था होती है जो सफल खिलाड़ियों का लक्ष्य होता है। लक्ष्य आनंद प्रदान करता है। आनंद से परिपूर्ण लक्ष्य की प्राप्ति हेतु लोक खेलों के खिलाड़ी कभी -कभी कठोर संघर्ष करते हुए इसे आत्मसम्मान का विषय बना लेते हैं । छत्तीसगढ़ क्षेत्र में लक्ष्य के लिए" दाम" शब्द का प्रचलन मिलता है। दाम, सर्वाधिक लोक खेलों में उदभव काल से ही विद्यमान है। ऐसे लोक खेलों की व्युत्पत्ति नगण्य है जिनमे पृथक से दाम की व्यवस्था की जाती है। दाम की पृथक से उपस्थिति यह दर्शाती है कि हजारों वर्ष पूर्व ही लोक खेलों के प्रेमियों एंव सृजनकर्ताओं ने इसकी आवश्यकता अनुभव की है। दाम का स्वरूप अत्यधिक कष्ट प्रदान करने वाला या हास्याप्रद बना देने वाला होता है। दाम की दोनों ही स्थित में उनके खिलाड़ी अपमान या लज्जा की अनुभूति करते हैं और इसलिए सफलता प्राप्त करने कड़ा संघर्ष करते हैं। अंतिम क्षण तक डटे हुए होते हैं जिससे लोक खेल रोचक एंव रोमांचकारी बन जाता है। लोक खेल सहज ही सस्ते में अभूतपूर्व आनंद प्रदान करने वाली विधा है। इनमें विशेष सामाग्री की आवश्यकता नहीं है। दुर्लभ सामाग्री के द्दष्टिकोण से गिल्ली - डंडा, भौंरा और बांटी का ही खेल विकसीत हुआ है। ऐसी सामाग्री श्रेष्ठ न सही, उपयोगिता को केन्द्रित कर स्वंय द्वारा निर्मित कर ली जाती है। सर्वाधिक लोक खेल सामग्री विहीन है। यदि सामग्री का समावेश हुआ है तो वह भी नाममात्र का जो की सरलता से उपलब्ध हो जाने वाला है । वास्तव में ये सामग्री मानव जीवन में उपयोगी न होकर उपेक्षित होती है, जैसे - पत्थर के छोटे छोटे टुकडे, खप्पर या मिट्टी के बर्तन के टुकड़े या फटे पुराने कपडे इत्यादि। लोक खेलों का अंत और आंरम्भ सुनिश्चित व सुनियोजित नहीं होता। खेल का चुनाव और आंरम्भ की घोषणा, खिलाड़ियों की मानसिकता, उनकी संख्या और सामाग्री की उपलब्धता पर निर्भर होती है। पूर्व तैयारी का सदा अभाव बना रहता है। इनमें स्थल के चुनाव को भी विशेष महत्व नहीं दिया जाता है। स्थल की दृष्टिकोण से लोक खेलों को दो श्रेणी में रखा जा सकता है -

(1) आंतरिक पृष्टभूमि से संबंधित लोक खेल
(2) बाहृ पृष्टभूमि से सबंधित लोक खेल

आंतरिक पृष्टभूमि से संबंधित लोक खेलों की श्रेणी में वे खेल सम्मिलित होते हैं जिनके लिए मैदान की आवश्यकता नहीं होती। ऐसे लोक खेलों के लिए सीमित किन्तु समतल स्थल ही उत्तम व उपयुक्त होता है, जैसे घर के आँगन, बरामदे, कमरा, चौपाल, चबुतरा आदि। चौसर , फुगड़ी व भोटकुल इसी श्रेणी का खेल है। बाह्य पृष्टभूमि से संबंधित लोक खेलों की श्रेणी में गिल्ली -डंडा, भित्ति व गिदिगादा जैसे लोक खेल आते हैं । इसके लिए मैदान अनिवार्य होता है। सीमा रेखा की दृष्टिकोण से मैदान बंधित नही हो किन्तु आवश्यकतानुसार तय कर लिए जाते हैं , वह भी नाप, अनुमान मात्र होता है। कुछ एक लोक खेलों में सीमा रेखा का बंधन नही होता। ऐसे खेल के खिलाड़ी लम्बी दूरी तय कर जाते हैं या फिर गांव की गलियों में भागते -छिपते रहते हैं । उक्त स्वंतत्रता ही उनके मन को खेल के प्रति प्रोत्साहित करते हैं।लोक खेल में ऋतुकाल का स्पष्ट प्रभाव परिलक्षित होता है। वर्षा ऋतु हो तो भित्ती और कूचि का वर्चस्व ग्रामीण जन जीवन में स्थापित हो जाता है, क्योंकि गीली जमीन ही ऐसे खेलों का आधार होती है। शीत ऋतु के आरंम्भ होते ही भौंरा या चुड़ी लुकउल जैसे लोक खेलों का प्रचलन बढ़ जाता है। इसी तरह गिल्ली -डंडा व रेस टीप जैसे लोक खेलों के लिए ग्रीष्मकाल उपयुक्त होता है। अधिकांश लोक खेलों का भूमि, सामग्री व सुविधा के आधार पर विभिन्न ऋतुओं से गहरा संबंध निहित है। इसीलिए उनके खिलाड़ियों को कोई आदेश नही करता, वह स्वभाविक रूप से मौसम के अनुरूप लोक खेलों का चुनाव कर लेते हैं । लोक खेलों में ऐसे खेलों का प्रचलन अत्याधिक हुआ है, जिसका स्वरूप सामूहिक है। सामूहिक खेलों के अलावा दलगत व व्यक्तिगत आर्थात एकल लोक खेल भी लोक संस्कृति में प्रचलित हैं। अधिकाधिक लोक खेलों में युवक व युवतियां साथ -साथ ही भाग लेते हैं । ऐसे लोक खेलों की संख्या नगण्य है, जिन्हे हम नारी लोक खेल या पुरूष लोक खेल की संज्ञा दे, किन्तु यह देखने को मिलता है कि सर्वाधिक लोक खेल बच्चों के लिए ही निर्मित हैं । सजोर व बलिष्ठ खिलाड़ियों हेतु लोक खेलों की संख्या कुछ एक है। यह इसलिए है कि मनुष्य सजोर होने से पूर्व ही जीवन यापन के लिए संघर्षरत हो जाता है। उनके पास खेल कूद के लिए मान्यता, प्राथमिकता या फिर समय नही होता। मानव जीवन में शारीरिक एवं मानसिक विकास हेतु खेल आधुनिक हो या प्राचीन सदैव वरदान सिद्ध हुए हैं । हजारों वर्ष पूर्व से ही, परिस्थिति के अनुकूल सघंर्ष करने की प्रवृति, सतर्कता, चतुराई , लोच, स्फुर्ति, लक्ष्य प्राप्ति हेतु इच्छाओ में दृढता, एकाग्रता और उत्साह के दृष्टि कोण से मानव समाज लोक खेलों के माध्यम से लाभान्वित एंव पल्लवित होता रहा है। उक्त लाभ अज्ञानतावश ही सही, फुगडी, पिट्टूल, और गिल्ली -डंडा सशक्त सिद्ध हुए हैं । इसी तरह श्वास के लिए तुवे , कबड्डी और झूलने के लिए चुहउल महत्वपूर्ण रहे हैं। रंगकर्मी या लोक कलाकार के लिए जिस व्यायाम या कसरत की अनिवार्यता होती है उसे वे सामान्यतः लोक खेलों से प्राप्त्त कर लेते हैं । ऐसे लोक खेलों में रस्सी कूद, उलानबाटी, अल्लगकूद की दाम प्रक्रिया, गिदिगादा और भिर्री प्रमुख है।

आधुनिक खेलों की लोकप्रियता एंव जीवन मूल्यों में तीव्रगति से होने वाले परिवर्तनों ने भले ही लोक खेलों को लुप्तप्राय अवस्था में धकेल दिया है किन्तु हजारों वर्ष पूर्व से ही इनके प्रति अनपढ़ मानव समाज की अगाध निष्ठा रही है क्योंकि गोटा और भोटकुल नामक लोक खेल उन्हे गिनती सिखाता रहा है। भौंरा, पखरातूक और बांटी ने निशाना साधने की मानसिकता को प्रोत्साहित किया है। मिट्टी से संबंधित लोक खेल घरघुंदिया तथा भरवा से सम्बंधित लोक खेलों ने कल्पना शक्ति को विकसित किया है । सामाजिक चेतना का दर्शन खेल गीत से होता है जो सुर ताल से परिचय कराने के लिए पर्याप्त है। अट्ठारह गोटी लोक खेल से मस्तिष्क का मंथन होता है वहीं आती- पाती नामक लोक खेल से प्रकृति के विभिन्न रंगो का ज्ञान। यथार्थ मे लोक खेल शारीरिक व मानसिक क्षमता को उर्जावान बना देता है। बच्चों के लिए माता पिता प्रथम पाठशाला है, तो लोक खेलों का वृहत् स्वरूप् दूसरी पाठशाला। अतीत मे लोक खेल अनपढ़ समाज की पाठशाला ही था। लोक खेलों का सांस्कृतिक महत्व उल्लेखनीय है। भारत गांवो का देश है। तीज- त्यौहार एवं धार्मिक उत्सव की यहां समृद्ध परम्परा रही है। उपरोक्त परम्परा को यहां के निवासियों द्वारा विशेष रूप् से मान्यता प्राप्त है। ग्रामीण जन अपने प्रतिदिन के कार्य, कृषि एवं जातिगत कार्यों को विराम देकर सामूहिक रूप् से मनाते हैं । कुल देवता एवं ग्रामीण देवी देवताओं की आराधना के पश्चात् जन मानस में उल्लास का वातावरण हो जाता है,वहीं मनोरंजन के दृष्टिकोण से उत्साहित भी। जहां गांव की गुड़ी से लेकर, गली और दईहान तक बच्चे केवल विभिन्न प्रकार के खेलों में रमे होते हैं वहीं बड़े - बुजुर्ग भी चौसर व गोटी से संबंधित लोक खेलों का आनंद उठाते हैं । प्राचीन काल से ही तीज- त्यौहार व धार्मिक उत्सव के पावन पर्व लोक खेल ही मनोरंजन का प्रमुख साधन होता रहा है। ऐसे लोक खेलों की व्युत्पत्ति लोक संस्कृति में हुई है जिसकी परम्परा या अस्तित्व एक निश्चित अवसर पर ही दिग्दर्शित होता है। उदाहरण् स्वरूप् नागपंचमी के दिन कुश्ती, जनमाष्टमी के दिन मटकी फोड़ , हरियाली के दिन नारियल फेंक व गेड़ी और पोला पर बैल दौड़। लोक खेल सहज में ही सर्वाधिक मनोरंजन प्रदान करने वाले साधन होते हुए भी इनका सामाजिक महत्व स्थापित नहीं हुआ है। लोक खेलों का कोई भी खिलाड़ी कितना भी सशक्त व श्रेष्ठ हो उसे सामाजिक रूप से सम्मान व प्रतिष्ठा प्राप्त नहीं होती ।सफलता बहुत ही महत्वपूर्ण हो फिर भी मूल्यांकन नहीं होता, उन्हे भुला दिया जाता है। सामाजिक दृष्टिकोण से छत्तीसगढ़ की लोक संस्कृति में पोला पर्व पर बैलों की दौड़ और नागपंचमी पर कुश्ती उल्लेखनीय है । इनमे सफल बैल जोड़ी के मालिक और कुश्ती के विजेता को आगामी वर्ष तक स्मरण किया जात है। अन्य लोक खेलों के लिए सांस्कृतिक मूल्य के निर्धारण को प्राथमिकता नहीं दी गई। आर्थिक रूप से पारितोषिक या नकद राशि का प्रचलन कभी भी विकसित नही हुआ और न ही सामग्री के दृष्टिकोण से आर्थिक महत्व भी स्थापित हो सका।

पारंपरिक खेल अर्थात लोक खेल का अस्तित्व सामूहिक हो, दलीय हो चाहे व्यक्तिगत, लोक खेल के दो रूप स्पष्ट हैं -
1. दुच्छ लोक खेल
2. गीतिक लोक खेल

लोक संस्कृति की विभिन्न विधाओं से स्वतंत्र लोक खेल ही "दुच्छ लोक खेल" हैं । इसके अंदर आधुनिक खेल भी सम्मिलित हैं। "गीतिक लोक खेल" एक स्वतंत्र विधा है विविधतापूर्ण लोक गीत की। लोक गीत जिसे ग्राम्य गीत भी कहा जाता है। सर्वधिक विद्वानो ने लोक गीत शब्द को ही स्वीकृति दी है। लोक गीत जो व्याकरण की विभिन्न विधाओं तथा बंधनो से मुक्त होते हैं जो ग्रामीण जनो द्वारा मनोभावों को सहज ही व्यक्त करने का साधन है। लोक गीत संस्कृति की वह सम्पति है जिससे युगों तक के मानव जीवन के दर्शन होते हैं ।

लोक गीत की परिभाषा डा. वासुदेव शरण अग्रवाल के अनुसार- नीले आकाश के नीचे, प्रकृति के बहुरंगी परिवर्तन, युद्ध और शांतिमय जीवन के चित्र एंव विधाता की स्त्री संज्ञक रहस्यमयी सृष्टि की मानवीय जीवन पर प्रसाद और विषादमयी छाया ये इन गीतों के प्रधान विषय हैं । जो शतकोटि कंठो से सहस्त्रों बार गाए जाने पर भी पुराने नहीं पड़ते और जिनकी सतत किलकारी वायु में भरे हुए चिरंतन स्वर की तरह सर्वत्र सुनाई पड़ती है। गीत मानों कभी न छीजने वाले रस के सोते हैं । वे कंठ से गाने के लिए और हृदय से आनंद लेने के लिए हैं ।डा. वेडियर ऐलविन अपने विचार प्रकट करते हुए कहते हैं कि लोक गीत केवल संगीत एंव भावों की दृष्टि से ही परिपूर्ण और महत्वपूर्ण नहीं हैं वरन उनमें जीवन के वास्तविक चित्रों का निरूपण भी प्राप्त होता है। संगीत और काव्य का पारस्परिक संबंध है। इसका प्रमाण लोक गीत है। लोक गीत मे स्वतः उदभूत भावों की उमंग निहित लगती है। लोक गीतों और काव्य संमश्रिण सहज, सुन्दर व स्वभाविक प्रतीत होता है। वह उस हृदय से, मनुष्य के अंतंरग से, निकलता है जिनके हृदय में निस्वार्थ भावना आनन्द व प्रेम है। सुख -शांति और संतोष है। दुखियों के प्रति करूणा है। त्याग-क्षमा-विश्वास आदि सभी भावनयें हैं । लोक गीत लोक साहित्य का प्रमुख विधा है जो अलिखित परंपरा में प्रवाहित होने के बावजूद संस्कृति सापेक्ष होने की वजह से अनेक युगों के स्पंदनो को संरक्षित रखते हैं ।

लोक गीतों की समृद्ध पंरपरा में खेल गीत का पृथक स्थान ही नहीं अपितु पृथक पहचान भी है। खेल गीत, जिसे लोक खेलों की पंरपरा में गीतिका लोक खेल की संज्ञा दी गयी है।

गीतिक लोक खेल अर्थात वह खेल जो गीत युक्त होते हैं जो मात्र खेल स्वरूप मनोरंजन प्रदान न कर लोक साहित्य में भी विशिष्ट स्थान रखते हैं । ऐसे लोक खेलों की उत्पत्ति भले ही स्वभाविक हो किन्तु गीत रचना के पीछे सृजन कर्ता निश्चित होते हैं ।एक खेल में एक ही लोक गीत प्रचलित होता है इसमे विविधता नहीं होती। किन्तु क्षेत्र या भाषा के अनुरूप भिन्नता मिल जाती है। खेल गीत हमारी संस्कृति की ऐसी धरोहर है जिसे संरक्षित व प्रसारित किया जा सकता है किन्तु परिवर्तित या पल्लवित नहीं । क्योंकि खेल गीत की रचना एक ही बार होती है, जो वर्षो पहले हो चुकी है। गीतिक लोक खेलों के संबंध मे यह कह पाना संभव नहीं कि पहले खेल का उदभव हुआ या गीत का। सम्भवत: दोनों का एक साथ उदभव नहीं हुआ होगा। ऐसा हुआ हो तो माना जायेगा कि उक्त गीतिक लोक खेलों के पीछे निर्माता रहे हैं जिनकी सोची समझी कृति है खेल गीत। किन्तु ऐसा नहीं लगता। खेल और गीत दोनों ही संपूर्ण हैं परन्तु कुछ एक खेलों में उनके गीत का मेल खाता है और कुछ ऐसे भी खेल है जिसके गीत संबंध विहीन या निरर्थक। बच्चे जब खेल गीत में तन्मयता से रमे हुए होते हैं तब उनमें मंचीय प्रस्तुति की झलक मिलती है। ऐसे समय पर खेल गीत को अभिनय युक्त लोक गीत कह सकते हैं । मानव पहले समूह में निवास करते थे। उस काल मे जिन खेलों का उदभव हुआ उनका प्रचलन मात्र समूह तक सीमित रहा। कृषि के आरंभ के साथ ही आर्थिक, सामाजिक, धार्मिक व राजनीतिक दृष्टिकोण से एक क्षेत्र के निवासियों का दूसरे क्षेत्र के निवासियों से संपर्क स्थापित हुआ। परिणामस्वरूप संस्कृति का आदान प्रदान हुआ। स्वाभाविक रूप से लोक खेलों का भी आदान प्रदान व प्रसार होने लगा। यही कारण है कि गिल्ली- डंडा, बांटी, भौंरा व बिल्लस जैसे लोक खेलों का विविधतापूर्ण स्वरूप अनेक क्षेत्र में विकसित हुआ है। उत्पत्ति से संबंधित मूल क्षेत्र के संदर्भ अस्पष्ट है। लोक कथाओं एवं पौराणिक ग्रंथों में लोक खेलों का विशेष उल्लेख नहीं मिलता, फिर भी इस दिशा मे कुछ प्रयास अवश्य किया जा सकता है क्योंकि यह माना जाता है कि भगवान शिव और माता पार्वती चौसर खेला करते थे। उपरोक्त उल्लेख अनुसार प्राचीनतम लोक खेल चौसर को देवताओं का खेल कहना अनुचित नहीं होगा।

महाभारत काल में लोकखेलों का वर्चस्व रहा है। कहा जाये तो द्वापर युग लोकखेलों के उत्थान का प्रथम चरण है। भगवान श्रीकृष्ण का बाल्यकाल साधारण मनुष्य की भांति व्यतीत हुआ है परिणाम स्वरूप उनका सम्पर्क उस वर्ग से हुआ जिनका बाल्यकाल लोक खेलों से गौरवान्वित रहा है। भगवान श्रीकृष्ण चरवाहा थे। हाथ में लाठी होने से सिद्ध होता है , कि उसे उन्होने खेल का आधार बनाया होगा। सम्भवत डंडा से संबधित लोक खेलों का अनेक स्वरूप विकसित हुए होंगे । भगवान श्रीकृष्ण ने लोकखेलों को मात्र मनोरंजन के साधन स्वरूप स्वीकृति न देते हुए अस्त्र -शस्त्र की भांति सम्मान दिया है। जमुना में निवासरत कालिया नाग तक पहुचकर उसे अपने वश में करने के लिए गेंद के खेल को माध्यम बनाया था। जब गजरूपी राक्षस अपने पांव तले कृष्ण को रौंदने आया तब उसका वध बांटी से किया था। चौसर खेल मे शकुनि को महारत हासिल थी। महाभारत युद्ध को जन्म देने मे चौसर खेल की भी महत्वपूर्ण भूमिका रही थी। शिक्षा ग्रहण के समय कौरव और पाण्डव पुत्रों द्वारा डंडा -पंचरगा खेलने का वर्णन मिलता है वहीं धनुष विद्या प्राप्त करने के साथ खेल स्वरूप निशाना साधने का अभ्यास करते रहे। न जाने इस काल में कितने लोक खेलों की परम्परा विकसित हुई, जो किसी महत्वपूर्ण घटना से संबंध नहीं होने के कारण अनुल्लेखित रह गये। यहां पर दर्शाना प्रासंगिक होगा कि भगवान श्रीकृष्ण के लिए महाभारत का युद्ध ही एक नियमबद्ध, वृहत् व सशक्त खेल था।

वर्तमान युग में डंडा, बांटी व गेंद से सम्बंधित लोक खेलों का अनेकानेक स्वरूप भारत की विशाल लोक संस्कृति में प्रचलित है जो महाभारत काल से ही विकसित हुए हैं।

भारतीय लोक संस्कृति में लोक खेलों का सामाजिक एवं आर्थिक महत्व कभी भी स्थापित नहीं हुआ। फलतः महाभारत कालोपरान्त लोक खेल ग्रामीण जन- जीवन में सिमट कर रह गया। स्वधीनता के पश्चात औद्योगीकरण एवं नगरीकरण का कुप्रभाव लोक खेलों पर भी पड़ा । लोक खेलों की समृद्ध परम्परा होते हूए भी आधुनिक खेलों की लोकप्रियता एवं उनके प्रसार के आगे घुटने टेक दिये गये। यदि जीवित या संरक्षित है तो वह भी शहरी संस्कृति, इलेक्ट्रानिक मीडिया से दूर ग्रामीण अंचलो में। वर्तमान समय में मात्र कबड्डी और खो -खो ही रास्ट्रीय स्तर पर स्थापित है और अपनी लोकप्रियता बनाये हुए है। नयी वस्तुओं के प्राप्त होने से जैसे पुरानी वस्तु व्यर्थ सी हो जाती है उसी तरह लोक जीवन में मानव नए खेलों के सम्पर्क में आते ही प्रतिदिन के खेलों से ध्यान हटा देते हैं और वह खेल स्मृति से धिरे-धिरे छिन्न हो जाते हैं । यही कारण है कि विकास क्रम में किसी भी राष्ट्र् या अंचल का हो, कब कितने लोक खेल लुप्त हो गये कह पाना संभव नहीं।

भारत वर्ष के विभिन्न प्रान्तों में प्रचलित कुछ प्राचीन खेलों के नामः-

1.गिल्ली, 2.पिट्टूल, 3.गड़ा गेंद, 4.भौंरा, 5.संडउवा, 6.चपेटा, 7.भिर्री, 8.फुगड़ी, 9.लंगरची, 10.सोना चांदी, 11.उलानबाटी, 12.लंगरची दौड, 13.कबड्डी , 14.खो- खो 15.आसीन, 16.घार घार, 17.सिलोलाई,

भारतीय लोक खेलों पर आधुनिकता का प्रभाव
सम्पूर्ण भारत का मूल्यांकन करें तो स्वाधीनता के पश्चात यहाँ विदेशी खेलों का वर्चस्व स्थापित होने लगा। विदशी खेलों को आधुनिक खेल भी कह सकते हैं। अधुनिक खेलों को प्रत्येक प्रान्त में पर्याप्त प्रचार व संरक्षण भी शासन कि ओर से मिला। आधुनिक खेलों के खिलाड़ियों को मनोरंजन ही नहीं राष्ट्र व अतंराष्ट्रीय स्तर पर ख्याति मिलने लगी, साथ ही साथ उचित राशि व विभिन्न कंपनियों में नौकरियां ।

आधुनिक अर्थात विदेशी खेलों का भारतीय जीवन में जड़ जमाने के लिए कौन -कौन जिम्मेदार है यह पृथक विषय है।
राष्ट्र के विभिन्न प्रदेशों एंव अंचलों में जहाँ स्वाधीनता के पश्चात शहरीकरण व औद्योगिकरण हुआ, मानव जीवन में आधुनिकता के नाम पर पश्चिमीकरण ही हुआ। गांव खाली होने लगा और कृषि जीवन उपेक्षित रहा। गांव के जिस चैपाल व चबूतरे पर ग्रामीणों की भीड़ व शोर गूंजा करता था उस स्थान पर सन्नाटा सा छाने लगा। उक्त बातों का लोक संस्कृति पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा।

जहाँ तक लोक खेलों का प्रश्न है उन पर आधुनिकीकरण का विपरीत प्रभाव रहा।

अधिकतम लोक खेलों के अस्तित्व को देखें तो स्पष्ट होता है, कि वह अबोध बच्चों का ही खेल है। जिसके लुप्त होने में गांव -गांव तक टी.वी के प्रचलन का योगदान रहा है। जिस समय बच्चे पारंम्परिक खेलों में लिप्त रहते थे उस क्षण आज ग्रामीण एंव शहरी बच्चे घर में दुबके टी,बी के भिन्न- भिन्न कार्यक्रमों का आनंद उठाते रहते हैं । यदि किसी का रूझान खेलों के प्रति रहा है तो वह भी लोक खेलों के बजाय सूचना एंव प्रसार के माध्यम से प्रचारित, शासन द्वारा संरक्षित तथा भविष्य सुरक्षित करने वाले आधुनिक खेलों के प्रति है क्योंकि उसमें लोक प्रियता एंव पुरस्कार है जो खिलाड़ियों का प्रेरणास्त्रोत बन गया, यहि कारण है कि जहाँ पारंपरिक खेलों की उपस्थिति थी वहां पर क्रिकेट, फुटबाल, टेनिस, विडियोगेम के दर्शन होते हैं ।