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Ritual Games

भूमिका, उत्पत्ति, स्वरूप एंव विकासक्रम

 छत्तीसगढ़ की पहचान केवल "धान का कटोरा" के नाम से नहीं है बल्कि बैलाडीला में लोहा, भिलाई का स्टील प्लांट, कोरबा में बिजली, एल्युमिनियम, देवभोग में हीरा, सभ्यता से दूर बस्तर का भू भाग, अपार वन संपदा, सिमेंट कारखाना तथा विविधतापूर्ण लोक संस्कृति से भी है। लोक साहित्य के दृष्टिकोण से शायद ही कोई प्रदेश छत्तीसगढ़ जैसा संपन्न होगा। छत्तीसगढ़ की लोक संस्कृति में जहाँ लोकगीतों, लोकनृत्यों और लोकनाट्यों का वृहत रूप है वहीँ लोक खेलों की विशिष्ट परंपरा भी। यह परंपरा हजारों वर्ष पुरानी नहीं बल्कि इस भू -भाग में मानव उदभव से है। पारंपरिक खेलों के विशाल स्वरूप को देखें तो स्पष्ट होता है कि छत्तीसगढ़ क बाल्यकाल अत्याधिक गौरवान्वित रहा है। सरगुजा से दंतेवाड़ा और डोंगरगढ़ से रायगढ़ तक जहाँ अनेकों पारंपरिक खेल लुप्त हो गये हैं वहीं सैंकड़ों लोक खेल अस्तित्व में आज भी है जो टी.वी., विडियोगेम , इंटरनेट व आधुनिक खेलों के प्रभाव से वंचित दूर- दूर के गांवों में संरक्षित व पल्लवित हो रहे हैं । लोक खेल आज भी उतने ही मनोरंजन का सरल और सशक्त साधन बना हुआ है जितना स्वाधीनता के पूर्व ग्राम्य जीवन में था। मानव उदभव के साथ ही लोक खेलों की परंपरा छत्तीसगढ़ में विकसित हुई है। मानव के आदिम युग से ही लोक खेलों की उत्पत्ति हुई है। व्युत्पत्ति के समय से ही अनेकों प्रकार के लोक खेल अस्तित्व में आये तथा एक स्थान से दूसरे स्थान तक प्रसारित हुए हैं । "झाड़-बेंदरा" को आदिम युग का खेल मान सकते हैं ।

छत्तीसगढ़ प्रदेश के निवासी कृषि कार्य पर ही निर्भर रहे हैं। एक तरफ ग्रीष्मकाल में विवाहोत्सव और रिस्तेदारों के घर आने जाने की परम्परा रही तो दूसरी तरफ वर्षा ऋतु और शीतऋतु में केवल कृषि कार्य। सभी ऋतुओं में लोकखेलों का उदभव हुआ है। स्वाधीनता के पूर्व कहें या हजारों वर्ष पूर्व, छत्तीसगढ़ के निवासी कम उम्र से ही जीवन यापन हेतु संघषर्रत हो जाते थे। उनके पास बाल्यकाल में ही खेल के लिए समय होता था। उक्त कारण से यहाँ की संस्कृति में अधिकाधिक लोक खेल बाल खेलों के रूप में विद्यमान है। छत्तीसगढ़ की लोक संस्कृति के स्वरूप् निर्धारण को देखा जाय तो नहीं के तुल्य कार्य हुआ है। विद्वानों ने यहाँ की संस्कृति और परंम्परा को विशेष महत्व नहीं दिया। थोड़ा बहुत कार्य हुआ तो प्रारम्भ से उपेक्षित एंव विकृत रूप में, लोक खेलों की बात और है। छत्तीसगढ़ प्रदेश का अधिकांश भाग मैदानी है तो आधा क्षेत्र पर्वतीय तथा वन संपदा से भरा हुआ। दोनों भाग के लोक खेलों में पर्याप्त मेल नहीं है। जो लोक खेल मैदानी भाग में प्रचलित है वह वन व पर्वतीय भाग में नहीं मिलते। ठीक उसी तरह वन क्षेत्र व पर्वतीय क्षेत्र के अनेकों खेल मैदानी भाग में नहीं मिलते। छत्तीसगढ़ प्रदेश में जहाँ अधिकतम लोक खेल, बाल खेल के रूप में प्रचलित है वहीं अधिकाधिक लोक खेलों का स्वरूप सामूहिक है। दलीय लोक खेलों का प्रचलन बहुत ही कम है। ऐसे लोक खेलों का प्रचलन भी है जिन्हे एकल या व्यक्तिगत लोक खेल कहा जा सकता है। छत्तीसगढ़ी लोक खेलों में ऐसे खेल बहुत से हैं जिसमें बालक व बालिका साथ- साथ खेलते हैं । कुछ एक खेलों को बालक या पुरूष लोक खेल और बालिका अर्थात नारी लोक खेल कह सकते हैं ।

पांरपरिक खेलों का जो रूप अन्य प्रदेशों में है वैसा ही छत्तीसगढ़ी लोक खेलों में भी दो स्वरूपों का प्रचलन है-

1 दुच्छ लोक खेल

2 गीतिक लोक खेल।

दुच्छ लोक खेलों के नाम - भिर्री , कूचि, संडउआ ,तोरईफूल , फ़ोदा, टेकन, सोना- चांदी, चूरी- लुकउल,
गीतिक लोक खेलों के नाम - भौरा, धायगोड़, फुगड़ी , अटकन- मटकन, बिरो, पोसम- पा, इल्लर- डिल्लर

छत्तीसगढ़ी लोक खेलों के उदभव काल में सामग्री पर विशेष ध्यान नहीं दिया गया। अधिकांश लोक खेल है जिसमें सामग्री की आवश्यकता होती है वह सहज ही उपलब्ध हो जाने वाला है। सामग्री युक्त लोक खेलों के नाम -गिल्ली, भौरा, बिल्लस, खिलामार, संडउवा, बांटी, पिट्टुल, कूचि, गोटा, सतगोंटिया , चुरी- लुकउल, चूरी बिनउल, भिर्री , फल्ली।
सैंकड़ों वर्ष पूर्व से ही अन्य प्रान्तों व अंचलवासियों का प्रवेश छत्तीसगढ़ में प्रारभ हो गया था, जो मूलत: यहीं बस गये। ऐसे लोगों के साथ उनके क्षेत्र से आए लोक खेलों का भी प्रसार छत्तीसगढ़ के मैदानी भागों में हुआ। उनके खेल यहाँ की संस्कृति में इस तरह से घुल मिल गए मानों उनका उदभव यहीं हुआ हो ।यही प्रमुख कारण है कुछ खेलों के अनेकों रूप यहाँ के ग्राम्य जीवन में पीढ़ी दर पीढ़ी विकसित होते रहे।

छत्तीसगढ़ी लोक खेलों में "दाम" का प्रचलन
छत्तीसगढ़ी लोक खेलों की परम्परा कितनी सम्पन्न व परिपूर्ण है, इस बात का स्पष्ट प्रदर्षन करता है "दाम" की विशिष्ट प्रथा।
वर्तमान समय में खेलों के समापन पर सफल खिलाड़ियों को "राशि" या "प्रतीक" चिन्ह पुरस्कार के रूप में प्रदान किया जाता है। उक्त पुरस्कार ही खेल में खिलाड़ियों का लक्ष्य होता है।
पुरस्कार का ही छत्तीसगढ़ी खेलों में पृथक अस्तित्व है, जिसे "दाम" के नाम से जाना जाता है। दाम में किसी प्रकार की उपलब्धि, राशि या सामग्री नहीं होती बल्कि वह आनंद की अनुभूति प्रदान करने का माध्यम होता है। यह आनंद सफल खिलाड़ी को असफल खिलाड़ी द्वारा प्राप्त होता है।
'दाम' का पर्याय शब्द है 'पादी' । हारा हुआ या जो दाम दे रहा हो उसके लिए "पादी" शब्द का प्रयोग किया जाता है। जिसका भी उदभव व विकास खेलों के साथ-साथ हुआ है। 'दाम' और 'पादी' लोक खेलों की ऐसी व्यवस्था है जो उनके साथ ही लुप्त हो सकती है अन्यथा सम्भव नहीं।
छत्तीसगढ़ी खेलों में दाम के दो रूप मिलते हैं। जिसे इस तरह से नाम दिया जा सकता है-
1 संगेच दाम
2 सांझर दाम

संगेच दाम - अनेकों पारंपरिक खेल ऐसे है जिनमें खेल के साथ ही साथ आंनद की अनुभूति उनके खिलाड़ियों को हो जाती है। इसके लिए किसी तरह की और साधन या माध्यम की आवश्यकता नहीं होती। ऐसे ही लोक खेलों के दाम को 'संगेच दाम' कहा जाता है। संगेच दाम के दो रूप छत्तीसगढ़ी लोक खेलों में मिलते हैं -
1) झेलार दाम :- झेलार दाम का पृथक अस्तित्व नहीं होता । यह दाम लोक खेलों में इस तरह से विद्यमान रहता है जैसे -नदिया के धार में लहर। उक्त दाम मात्र अनुभव किया जा सकता है दिखलाई नहीं पड़ता। ऐसे खेलों के नाम है - भौंरा, फुगड़ी, सोना चांदी आदी।
2) उरकधारा दाम :- उरकधारा दाम का अस्तित्व स्पष्ट दिखाई पड़ता है किन्तु खेलों के अंत में। उक्त दाम भी लोक खेलों में इस तरह से जुड़ा रहता है मानो नदिया और समुद्र। इसे पृथक नही किया जा सकता या कहा जाये उक्त दाम के बिना उस खेल की कल्पना ही नहीं की जा सकती। ऐसे लोक खेलों के नाम - गिल्ली, अल्लग कूद, फल्ली, आदि।

सांझर दाम - छत्तीसगढ़ में प्रचलित खेलों में ऐसे भी पारम्परिक खेल है जिसमें आंनद नहीं होता किन्तु खेल समाप्ति के पश्चात सफल खिलाड़ियों के लिए पुरस्कार स्वरूप जो दाम की व्यवस्था होती है वही 'सांझर दाम' कहा जाता है। सांझर दाम का सम्बन्ध किसी भी लोक खेल से नहीं होता । यह स्वयं में स्वतंत्र साधन होता है। सांझर दाम के दो रूप मिलते है।

1 तुवे

2 ठुठी।

तुवे - खेल में हारा हुआ खिलाड़ी दाम देता है और जीतने वाला खिलाड़ी दाम लेता है। हारा हुआ खिलाड़ी अपने मुंह से ध्वनि युक्त श्वांस छोड़ता है वही "तुवे" है। कुछ एक खेल इस तरह से हैं जिसमें खिलाड़ी बहुत दूर चले जाते हैं। दूर जाने के पश्चात खेल समाप्त होता है। हारा हुआ खिलाड़ी उक्त स्थान से दौड़ते हुए उस जगह जाता है जिस जगह से खेल प्रारंभ हुआ था। यह दौड़ लगातार नहीं होती। खिलाड़ी 'चल तुवे' कह कर दौड़ता है। 'तुवे' शब्द के "वे" से ध्वनि निकलना प्रारंभ होता है। उक्त ध्वनि तब तक निकलता है जब तक श्वांस समाप्त न हो जाय। श्वांस के समाप्ति के साथ ही ध्वनि निकलना बन्द हो जाता है और वह दौड़ भी। इसी तरह जितना श्वांस उतना ही दौड़। सम्पूर्ण मिलकर तुवे बन जाता है। दाम लेने वाले खिलाड़ी ही तय करते है कि कितने तुवे में वह अपनी मूल स्थान पर पहुंचेगा।
ठुठी :- ठुठी दूसरी तरह का दाम है। जिस स्थान पर खेल सम्पन्न होता है उसी स्थान पर ठुठी दाम भी होता है। इसमें हारे हुए खिलाड़ी के एक हाथ को एक पैर से बांध दिया जाता है। दूसरे हाथ में पुराना झाडू पकड़ा दिया जाता है। (झाडू पुराना हो जाता है तब उसका आधा हिस्सा घिस जाता है उक्त स्थिति को ठुठी कहा जाता है।) दाम देने वाला खिलाड़ी लंगड़ाते हुए उक्त झाडू से जीते हूए खिलाड़ियों को दौड़ाकर मारना चाहता है। किसी भी एक खिलाड़ी को पड़ जाता है तो दाम भी समाप्त हो जाता है।

छत्तीसगढ़ी लोक खेलों में "फत्ता" का प्रचलन

"टॉस" अंग्रेजी का शब्द है, जिसकी सार्थकता एंव आवश्यकता को पूर्ण करते हुए छत्तीसगढ़ी लोक खेलों की परम्परा में "फत्ता" शब्द का प्रचलन सदियों से विद्यमान है। जिसे "पुकाना" भी कहा जाता है। किसी भी खेल स्पर्धा या प्रदर्शन का किस दल या किस खिलाड़ी से प्रारंभ किया जाय, उक्त प्रश्न का उत्तर है 'टॉस' या फिर 'फत्ता' । फत्ता का अस्तित्व टॉस से पृथक है जो इस बात की पुष्टि करता है कि छत्तीसगढ़ी लोक खेल अपनी शुरूआत से ही संपूर्ण एंव सशक्त है।
संभव है कि लोक खेलों की शुरूआत में सिक्का या रूपया से टॉस करने की प्रथा नहीं रही होगी। उस काल में यह समस्या स्वाभाविक ही उठी होगी कि खेल का प्रारंभ कौन करेगा? तात्कालिक चेतलग व्यक्ति या सृजनात्मक प्रवृत्ति के लोग ने उक्त समस्या की समाधान हेतु प्रयास किये होंगे। प्रयास के परिणाम स्वरूप छत्तीसगढ़ी लोक खेलों की स्वतंत्र परम्परा में फत्ता का अविष्कार हो गया होगा। छत्तीसगढ़ की भाषा, लोक साहित्य व कला पर ही नहीं अपितु संस्कृति पर भी आधुनिकता का कुप्रभाव पड़ा है। बहुमूल्य शब्द 'फत्ता' लुप्त प्राय स्थिति में है। छत्तीसगढ़ी लोक खेलों में फत्ता के दो रूप मिलते हैं जिसे इस तरह से नाम दिया जा सकता है।-
1 एकमई फत्ता

2 साफर फत्ता

एकमई फत्ता - फत्ता प्रत्येक खेल के लिए अनिवार्य होता है किन्तु छत्तीसगढ़ के पारम्परिक खेलों में अनेक ऐसे खेल हैं जिनके लिए फत्ता की आवश्यकता नहीं होती बल्कि खेल के सम्पूर्ण स्वरूप में ही ऐसी व्यवस्था होती है जो फत्ता का कार्य कर देता है। फत्ता की उक्त व्यवस्था खेल के प्रारम्भ में होती है। इस तरह का फत्ता खेल के साथ जुड़ा होता है और कभी भी परिवर्तन नहीं होते और न ही उनके बिना खेल पूर्ण हो पाता है। ऐसे खेल से संबंधित फत्ता को एकमई फत्ता कहा जाता है। एकमई फत्ता से संबंधित लोक खेल गिल्ली डंडा, बांटी, भौंरा, संडउवा।
साफर फत्ता - वर्तमान स्थिति जो भी हो छत्तीसगढ़ी लोक खेलों की गौरवशाली परम्परा में 'साफर फत्ता' के तीन रूप मिलते हैं और तीनों ही रूपों में किसी भी तरह की सामग्री की आवश्यकता नहीं होती। फत्ता के तीन प्रकार हैं -

1) संखली फत्ता

2) एक हत्थी फत्ता,

3) अंगरी फत्ता

संखली फत्ता -संखली फत्ता छत्तीसगढ़ी लोक खेलों में सर्वाधिक लोकप्रिय है। निर्णय के दृष्टिकोण से यह बहुत ही सरल व सशक्त फत्ता है। उक्त फत्ता से छत्तीसगढ़ के सभी जिलों व कस्बों में पारम्परिक खेलों के खिलाड़ी अवगत है। ऐसा कोई भी जिला नहीं होगा जिसे अछूता कहा जाय।
संखली फत्ता करने के लिए चित्र न.1 के अनुसार प्रतिभागी सभी खिलाड़ी, गोलाकार स्थिति में खड़े होते हैं फिर एक दूसरे के हाथ को पकड़कर उँगलियों को इस तरह से फसातें है कि हथेली से हथेली जुड़ जाय। एक चक्र बन जाता है। अब जुड़े हाथ को उपर नीचे की दिशा में हिलाते हैं। तीन चार बार हिलाने के पश्चात एक दूसरे के हाथ को छोड़कर तत्काल ही प्रत्येक खिलाड़ी अपनी बाएं हाथ को सीधा करते हैं उसी गति में दायें हाथ को उल्टी या सीधी स्थिति में बाएं हाथ के उपर रखते है। चित्र न. 2 के अनुसार - फत्ता करने से पूर्व संख्या तय होती है। फत्ता करते ही देखा जा सकता है कि कितने खिलाड़ियों का हाथ सीधा व कितने का उल्टा है। दोनों में कोई भी एक स्थिति की संख्या अधिक व एक स्थिति की संख्या कम होती है तय अनुसार कम या फिर अधिक संख्या वाले खिलाड़ियों को फत्ता से बाहर किया जाता है शेष फिर फत्ता करते है। जितना आवश्यक हो फत्ता किया जाता है। अंत मे एक खिलाड़ी शेष रह जाता है जो बिरो, फल्ली व कोन्टुल जैसे पारंपरिक खेलों के लिए दाम देने वाला या बिल्लस, सतगोंटिया व जाँवर- जीयर जैसे खेलों में दाम लेने वाला (प्रमुख) खिलाड़ी बन जाते है।

यदि फत्ता दो दलों के बीच करना होता है तो दोनों दल के एक-एक खिलाड़ी व एक फत्ता करवाने वाला होता है। इसमें भी कम या अधिक तय किया जाता है। अधिकांश अधिक संख्या को मान्य रहता है। तीनों व्यक्ति एक दूसरे के हाथ को चित्र नं1 के अनुसार पकड़ते हैं फिर ऊपर नीचे दिशा में हिलाकर छोड़ते हैं और तत्काल ही चित्र नं2 के अनुसार हाथ को रखते है स्वाभाविक है तीन में दो का एक ही स्थिति व एक का पृथक होगा। फत्ता करवाने वाले का हाथ उल्टा या सीधा है उस पर निर्भर करता है दोनों दल की खिलाड़ियों के हाथ । यदि फत्ता करवाने वाला के उपर की स्थिति से विपरीत दोनों दल वाले दोनों खिलाड़ी का हाथ एक ही स्थिति में है तो फिर फत्ता किया जाता हैं। अतंतः निर्णय हो जाता है।
एकहत्थी फत्ता

'एकहत्थी फत्ता' में भी किसी तरह की सामग्री नहीं होती । छत्तीसगढ़ी लोक खेलों की खिलाड़ी उक्त फत्ता से परिचित तो है किन्तु उपयोग कम ही करते हैं।
एकहत्थी फत्ता में सभी खिलाड़ी चित्रानुसार एक स्थान पर खड़े होते हैं जो खिलाड़ी प्रमुख या सजोर होता है वह अपना एक हाथ आगे बढाकर, हथेली को सीधा रखता है मानो कुछ मांग रहा हो फिर अन्य सभी खिलाड़ी अपना अपना एक-एक हाथ को उसके हाथ के ऊपर क्रमवार रखते हैं। सजोर खिलाड़ी का हाथ सभी से नीचे होता है वह अपने हाथ से ऊपर की ओर सभी के हाथ को फेंकता है।तत्काल ही सभी खिलाड़ी अपने हाथ को आगे बढ़ाकर उल्टा या सीधा रखते है। चित्रानुसार तत्काल ही सभी खिलाड़ी अपने हाथ को आगे बढ़ाकर उल्टा या सीधा रखते है। चित्रानुसार
उल्टा या सीधा स्थिति में कम या अधिक के अंतर देखते हुए एक पक्ष को अलग किया जाता है जिसे "पूक गया" कहा जाता है। कम या अधिक पूर्व घोषित कर दिए जाते हैं। दूसरे पक्ष के खिलाड़ी फिर फत्ता करते है। अन्त में एक खिलाड़ी बचता है जिसे फत्ता हारने वाला माना जाता है या जितने वाला। दलीय लोक खेलों में मात्र दोनों दल से एक-एक खिलाड़ी व फत्ता करवाने वाला तीसरा व्यक्ति होता है। संखली फत्ता की भांति तीनो व्यक्ति के मध्य एकहत्थी फत्ता पूर्ण हो जाता है।

अंगरी फत्ता
एकहत्थी व संखली फत्ता के सदृष्य अंगरी फत्ता का प्रावधान भी छत्तीसगढ़ी लोक खेलों के स्वरूप में मिलता है। अंगरी फत्ता की प्रक्रिया बहुत ही सरल व सामान्य है। खेल में भाग लेने वाले प्रत्येक खिलाड़ियों की अंगुलियों पर केंन्द्रित होने के कारण इसे "अंगरी फत्ता" कहा जाता है। बच्चों में जैसे ही खेलने की जिज्ञासा जागृत होती है वैसे ही सजोर खिलाड़ी के संचालन में यह फत्ता किया जाता है।
फत्ता के लिए सजोर खिलाड़ी खड़ा होता है। अपनी एक हाथ को सामने की ओर उठाता है। हथेली को इस तरह से फैला लेता है मानो आशीर्वाद दे रहा हो। शेष खिलाड़ी अपनी-अपनी, एक-एक हाथ की एक एक अंगुली को सजोर खिलाड़ी के हथेली में इस तरह से टिका देता है जैसे कि सामूहिक रूप में अँगुलियों से हथेली को उठाना चाह रहे हों। सजोर खिलाड़ी फत्ता का संचालन कर रहा होता है इसलिए वह कहता है- एक... दो... तीन...। तीन शब्द के उच्चारण होते ही सभी खिलाड़ी अपनी-अपनी अंगुली को खींचता है और सजोर खिलाड़ी उसे पकड़ता है। मात्र एक खिलाड़ी की अंगुली पकड़ में आती है तब वह अंगुली वाला खिलाड़ी पादी गड़ी बन जाता है और दाम देता है। यदि एक से अधिक खिलाड़ी की अंगुलियां पकड़ में आ जाती हैं तो पुनः फत्ता किया जाता है। इस बार जो अंगुली पकड़ में आ गया उन्हें ही फत्ता में सम्मिलित किया जाता है। अवश्यकतानुसार बारम्बार यह फत्ता किया जा सकता है। जब एक खिलाड़ी की अंगुली पकड़ में आती है तब फत्ता समाप्त हो जाता है। अंगरी फत्ता का स्वरूप अन्य फत्ता से पृथक है। इसका प्रचलन उन खेलों में मिलता है जिसमें फत्ता से असफल खिलाड़ी दाम देता है। जैसे - बिरो, सोना-चांदी, संखली, खम्भा, तरोई फूल, टेकन, परी-पखरा, घाम- छांव, नदी-पहार, कोन्टुल इत्यादि।

छत्तीसगढ़ी लोक खेलों में "सुसीरिया" का प्रयोग

वर्तमान समय में किसी भी खेल में संचालक अनिवार्य होता है जिसे "रेफरी" कहा जाता है। क्रिकेट में इसके लिए एम्पायर शब्द का प्रचलन है। यह खेल के महत्वपूर्ण स्थान है जिस पर जिम्मेदार व्यक्ति नियुक्त होता है। जिसका निष्पक्ष निर्णय सबसे बड़ी विषेषता होती है क्योकि इनकी छोटी सी भी गलती किसी दल या खिलाड़ी के हार का कारण बन जाती है।

छत्तीसगढ़ी की संस्कृति में लोक खेल आज तक कभी भी स्पर्धा का विषय नहीं बना। परिणाम स्वरूप "रेफरी" या "एम्पायर" जैसे कोई शब्दों का प्रचलन नहीं हुआ और न आवश्यकता अनुभव की गई।

पुधव मंच के तत्वाधान में जब लोक खेलों का स्पर्धा व प्रदर्शन 1995 में किया जाने लगा तब रेफरी जैसे कोई छत्तीसगढ़ी शब्दों की आवश्कता अनुभव की गयी। जिसका छत्तीसगढ़ी लोक संस्कृति में अभाव है। पुधव मंच की पारम्परिक खेलों की यात्रा में उक्त अभाव व कमी को पूरा करने हेतु "सुसीरिया" शब्द का प्रयोग किया गया। "सुसीरिया शब्द" सुसरी या सीटी बजाने वाले से लिया गया है। उक्त शब्द सार्थक ही नही सरल व सशक्त भी सिद्ध हुआ और लोक खेलों की खिलाड़ियों ने "सुसीरिया" शब्द को स्वीकार किया है।


छत्तीसगढ़ी लोक खेलों में "गड़ी" शब्द का प्रचलन

छत्तीसगढ़ प्रदेश में सैकड़ों लोक खेलों का प्रचलन है किन्तु लोक खेल में "खिलाड़ी" शब्द का प्रचलन नही मिलता। लोक खेलों के प्रतिभागी इस शब्द से परिचित नहीं है। फिर भी खिलाड़ी शब्द की सार्थकता व भाव को पूर्ण करते हूए "गड़ी" शब्द का प्रचलन प्रत्येक जिले में है।

गड़ी शब्द का तात्पर्य है साथी। साथी से अर्थ यह नहीं जो साथ-साथ खेल रहे हो। साथी का संबंध केवल दलगत लोक खेल मे सम्मिलित प्रतिभागी से है। प्रत्येक दल के खिलाड़ी अपने साथी को गड़ी कहते हैं। यदि दल में पांच खिलाड़ी हैं तो वह पांच गड़ी का खेल कहलाता है। गड़ी शब्द का प्रचलन एकल लोक खेल या सामूहिक लोक खेलों मे नहीं है। ऐसे खेलों में आवश्यकता भी अनुभव नहीं की गयी। किन्तु दाम देने वाले खिलाड़ी के लिए "पादी गड़ी" शब्द का उच्चारण सामूहिक लोक खेलों मे कर लिया जाता है । शेष सम्मिलित खिलाड़ियों के लिए नहीं।

गड़ी बदना- गड़ी शब्द से ही गड़ी बदने की प्रक्रिया प्रचलित है। गड़ी बदने की प्रक्रिया मात्र दलीय लोक खेलों में होती है। उक्त प्रक्रिया से सभी खिलाड़ी दो दल मे बंट जाते हैं । जो दोनों दल के प्रमुख को मान्य होते हैं। छोटे-बड़े, मोटे-पतले या योग्य-अयोग्य खिलाड़ी जैसे विवाद नहीं होते। प्रक्रिया इस तरह से है - दो सजोर खिलाड़ी, दो दल के नेतृत्व करते हैं। यही माईगड़ी कहलाता है। शेष सभी खिलाड़ी दो-दो की जोड़ी बन जाते हैं। प्रत्येक जोड़ी अकेले जाकर एक दूसरे को नाम देते हैं। यह नाम होता है। दूध और दही या फिर आमा और अमली। यही बदना है।बद लेने के पश्चात् प्रत्येक जोड़ी माई गड़ी के पास जाते हैं। जाकर पूछते हैं। दूध लेबे के दही ? यदि आमा और अमली बदे हैं तो पूछेंगे -आमा खाबे के अमली ? दो सजोर खिलाड़ी अर्थात माई गड़ी हैं वे दूध या दही (आमा या अमली) में से एक शब्द का उच्चारण करते हैं। दूध कहने वाले की दल में जो दूध बना था वह खिलाड़ी सम्मिलित है और दही कहने वाले माई गड़ी के दल में दही बना था वह खिलाड़ी। इसी तरह आमा और अमली का भी उच्चारण किया जाता है और प्रत्येक जोड़ी दो माई गड़ी के बीच बंटकर दो दल बन जाता है।

छत्तीसगढ़ी लोक खेलों में "दूध- भात" का प्रचलन
लोक खेलों में योग्यतानुसार खिलाड़ियों का मुल्यांकन नहीं होता है। कोई भी लोक खेल हो योग्य और अयोग्य खिलाड़ियो के समूह और सभी के समान महत्व के संबध में छत्तीसगढ़ी कहावत है- सब धान नौ पसेरी। वैसे अनुभवी एंव सजोर खिलाड़ी का हस्तक्षेप साथी खिलाड़ियों में सर्वधिक होता है किन्तु अयोग्य या अनुभवहीन खिलाड़ियों की उपेक्षा उनके द्वारा बिल्कुल भी नहीं कि जाती। सामूहिक लोक खेलों में इस बात का प्रमाण देखने को मिलता है। समूह के द्वारा जब किसी खेल का चुनाव किया जाता है और अनाड़ी या अनुभवहीन बच्चे भी खेलने की इच्छा प्रदर्षित करते हैं तब उसे टाला नहीं जाता है। अनाड़ी या अनुभवहीन बच्चों के लिए लोक खेलों की परम्परा में "दूध-भात" का प्रचलन मिलता है। दूध भात से तात्पर्य है खिलाड़ी विशेष को सम्पूर्ण छूट प्राप्त होना। जिस खिलाड़ी को दूध भात कहा गया है उसके द्वारा किये गये गलती को ध्यान नहीं दिया जाता है। यदि खेल उचित खेलता है तो सम्मान किया जाता है। छू लेने की प्रक्रिया से संबंधित खेलों में दूध भात बना हुआ खिलाड़ी कभी भी छूने का काम नहीं करता है। ये सिर्फ दाम लेता है। दूध भात के माध्यम से छोटे बच्चे बड़ों के खेल में सम्मिलित होकर अनुभव प्राप्त करते हुए पारंगत हो जाते हैं। वास्तव में दूध-भात, लोक खेलों के लिए प्रशिक्षण का आधार है।