• Followers
Ritual Games

खेल की सम्पूर्ण जानकारी

गिल्ली से संबधित लोक खेल

 लगभग तीन से पांच इंच गोलाई व लंबाई की एक लकड़ी जिसके दोनों छोर नुकीले होते हैं, गिल्ली कहलाती है। गिल्ली एक दुर्लभ सामग्री है जो खिलाड़ियों को सहज में उपलब्ध नहीं हो पाती। पेड़ से लकड़ी काटना, फिर उल बनाना, हर खिलाड़ी के लिए सम्भव नहीं होता फिर भी यह खेल लोकप्रिय है। इसके खिलाड़ी, विशेष रूचि होने के कारण व्यवस्था कर ही लेते हैं या फिर अपने से ही जो संभव हो बनाकर खेल लेते हैं।

गिल्ली का खेल प्राचीन हैं किन्तु प्रमाण मिलता नहीं है। वर्तमान समय में भरतीय लोक संस्कृति में, गिल्ली लोक खेल के अनेकानेक स्वरूप मिलते हैं। केवल छत्तीसगढ़ प्रदेश में ही सात से अधिक स्वरूप का प्रचलन है। विकसित स्वरूप के अध्ययन से पुष्टि होती है कि गिल्ली लोक खेल की परम्परा हजारों वर्ष पुरानी है। जैसा कि कोई वृक्ष, जितना अधिक पुराना होता जाता है उतनी अधिक उसमें शाखाएं फूट पड़ती हैं।

 

गिल्ली लोक खेल की उत्पति किस स्थान पर, उनके किस स्वरूप से हुई है इसकी जानकारी अप्राप्त है। स्वरूपों की विविधताओं पर दृष्टि केन्द्रित करने से ज्ञात होता है कि गिल्ली सामग्री के दृष्टिकोण से स्वतंत्र नहीं है। उसके संपूर्ण स्वरूप में एक और सामग्री का प्रचलन मिलता है, वह है डंडा। गिल्ली का कोई भी स्वरूप हो उनमें डंडा की उपस्थिति अनिवार्य तथा उल्लेखनीय है। माना जाता है कि मानव ने डंडा को आदिम काल से ही प्रमुख हथियार के रूप में स्वीकार कर लिया था। स्वाभाविक रूप से पुरूष वर्ग अपने साथ डंडा लेकर ही चला करते थे। आज की तरह उस काल में भी लकड़ी के छोटे-छोटे टुकड़े पड़े रहते थे। लकड़ी के किसी छोटे से टुकड़े को डंडा से मारते हैं। यदि लकड़ी के एक किनारे पर चोट पड़ती है तो लकड़ी उपर की ओर उछल जाती है। डंडे की चोट से लकड़ी में उत्पन्न होने वाले उछाल ने ही मानव को अपनी ओर आकृष्ट किया होगा और गिल्ली लोक खेल का स्वरूप मानव समाज में स्थापित हो गया होगा। सम्भवत: स्थापना के प्रारम्भिक काल में गिल्ली खेल में दूरी की प्रधानता रही होगी। कौन, कितनी दूरी तक गिल्ली को मार सकता है ? या सुनिश्चित दूरी पर, गिल्ली को कितनी बार उछालकर या फिर मारकर ले जा सकता है ? जिस व्यक्ति द्वारा मारा गया गिल्ली सर्वाधिक दूरी पर जाता रहा होगा, वही अपने साथियों में श्रेष्ठ व सफलता के आनंद की अनुभूति प्राप्त कर गौरवान्वित होता रहा होगा। उल्लेखित गौरव ने ही असफल खिलाड़ियों को सर्वाधिक दूरी तक गिल्ली मारने हेतु प्रोत्साहित किया होगा। गिल्ली, लाठी से संबंधित खेल था इसलिए इसका प्रसार विभिन्न क्षेत्रों में शीघ्र ही हुआ और बालक, युवक व पुरषों में लोकप्रिय भी हो गया।

उदभव काल में गिल्ली की लम्बाई लगभग चार से सात इंच तक की और मोटाई एक इंच व्यास से भी कम रही होगी। दूसरे शब्दों में पतली लकड़ी के छोटे टुकड़े ही गिल्ली के रूप में उपयोग किये जाते रहे होंगे। लकड़ी का छोटा सा टुकड़ा जमीन पर रखकर, उसके एक किनारे को डंडे से मारकर उछाल दिया जाता रहा होगा। हवा में उछलते ही डंडे से फिर वार कर दूर तक पहूंचा दिया जाता रहा होगा।

गिल्ली का लकड़ी स्वरूप वर्षो तक प्रचलन में नहीं रहा होगा, क्योंकि इनके खिलाड़ियों ने श्रेष्ठ प्रदर्शन हेतु उत्साहित होकर गिल्ली में उल की कल्पना की होगी। लकड़ी के किसी छोर के नीचे गढ्ढा हो तो उक्त छोर को डंडे से मारने पर लकड़ी अच्छी तरह से उछल जाती है। उक्त आवश्यकता को ध्यान में रखकर, लकड़ी को जिस दिशा में उछालना है उस दिशा में लकड़ी के छोर के नीचे डंडे से खरोंचं कर गढ्ढा बनाने लगे होंगे। समतल एंव ठोस मैदान में मिट्टी को खरोंच कर गढ्ढा बनाना कठीन होता है, ऐसी परिस्थिति से जूझते हुए फिर किसी का मन उद्वेलित हुआ होगा। उन्होने मोटी लकड़ी के एक सिरे को छीलकर अपनी कल्पना को साकार किया होगा। तीन चार इंच व्यास वाली मोटी लकड़ी के एक सिरे को छील कर नोक का रूप दे दिया जिससे मिट्टी खरोंचने की आवश्यकता ही समाप्त हो गया। गिल्ली में उल होने से समतल स्थल में भी उछालना आसान हो गया। गिल्ली को उनके एक दो स्वरूप में, दाम के अवसर पर स्पर्श करना मना होता है। ऐसे समय पर गिल्ली का बिना छीला हुआ छोर सामने की ओर और उल पिछे की ओर तो स्थिति प्रतिकुल बन जाती है। गिल्ली को उछालकर सामने की ओर मारना कठिन हो जाता है। उक्त समस्याओं के समाधान हेतु गिल्ली के दोनों छोर को छीलकर उल बना दिया गया। इस तरह भारतीय लोक खेलों की संस्कृति मे गिल्ली का स्वरूप स्थापित हुआ जो वर्तमान समय में भी प्रचलित है।

ग्रामीण जन सरल एंव स्वतंत्र स्वभाव के होते हैं। उनका स्वभाव लोक खेलों में भी दिग्दर्शित होता है। उन्होंने गिल्ली की लम्बाई, मोटाई व वजन को कभी भी सीमा मे बांधा नहीं, इसी तरह डंडे का चुनाव भी कर लिया जाता है। लोक खेलों के रसिकों को बेर, कउहा, बबूल और तेंन्दू के पेड़ से उपयुक्त डंडे की प्राप्ति हो जाती है। खिलाड़ी बबूल के डंडे को सर्वोत्तम मानते हैं क्योंकि वह मजबूत और हल्का होता है। गिल्ली के लिए भी बबूल की लकड़ी को उचित मानते हैं।
छत्तीसगढ़ प्रदेश में प्रचलित सम्पूर्ण लोक खेलों में गिल्ली का स्थान प्रथम और महत्वपूर्ण है। इस भू-भाग में 7 से भी अधिक गिल्ली के स्वरूप विकसित हुए हैं, जो सामूहिक, एकल व दलीय तीनो ही श्रेणी मे सम्मिलित होते हैं। छत्तीसगढ़ के ग्रामीण जन-जीवन में इसकी लोक-प्रियता देखते बनती है, जब बच्चे व युवक झुण्ड के झुंड गिल्ली डंडा खेलते हुए पूरी दोपहर व्यतीत कर देते हैं। यह ग्रीष्म काल का खेल है और इस काल के प्रमुख खेलों में से एक भी है। गिल्ली के अधिकतम स्वरूप हेतु लंबे चौंड़े मैदान की आवश्यकता होती है, जो गांवो में उपलब्ध हो जाता है। मैदान के अभाव में खेत और खलिहान गिल्ली के लिए श्रेष्ठ स्थान होते हैं।

छत्तीसगढ़ की विशाल संस्कृति में इस खेल के साथ गीत का प्रचलन नहीं मिलता है। गिल्ली और डंडा लकड़ी का होता है इस दृष्टिकोण से इसे पेड़ से संबंधित लोक खेलों की श्रृखला में भी रखा जा सकता है। गिल्ली लोक खेल के सभी स्वरूप में खिलाड़ियों के लिए शारीरिक व मानसिक रूप से एक्सरसाईज अनिवार्य होती है।

गिल्ली और डंडा की इस लोक खेल के लिए छत्तीसगढ़ में कुछ शब्द का प्रचलन व प्रक्रिया प्रचलित है जो विभिन्न स्वरूप में देखने को मिल जाता है जैसे- समतल मैदान मे उछालने के लिए गिल्ली को जमाकर रखना, उल जमाना और जमे हुए गिल्ली के उल को डंडे से मारकर उछालना "उल कुदाना" कहलाता है। यदि गिल्ली तीव्र गति से उछलकर दूर तक जाती है तो उसे बडे उल,कम उछलता है तो छोटे उल और उछलने से वंचित होता है तो उसे "फूस" कहा जाता है। गिल्ली लोक खेल में "बढ़ा" शब्द का प्रचलन है। बढ़ो, बढ़ोही, बढ़ाथे, बढ़ागे और बढ़ोना जैसे शब्द का उच्चारण गिल्ली के खिलाड़ी करते हैं जिसका मूल अर्थ है मारना। इसी तरह हाथगोड़ की प्रक्रिया भी प्रचलित है। हाथगोड़ का उद्देश्य मात्र सजा स्वरूप है। इसकी प्रक्रिया इस तरह से है - पहले गिल्ली का उल जमा दिया जाता है। डंडा को अपने पीछे से ले जाकर दोनों पैर के अंदर से सामने ला दिया जाता है। गिल्ली की उल को मारता है। फिर डंडा को दोनों पैर के अंदर से बाहर निकाल कर उछले हुए गिल्ली को मार दिया जाता है। इस प्रक्रिया में यदि गिल्ली को अच्छे से चोट पड़ती है तो वह खिलाड़ी की विशेष योग्यता सिद्ध हो जाती है।

गिल्ली से संबंधित लोक खेलों के नाम :-

1. छिर्रा गिल्ली 2. दलीय गिल्ली 3. दौड़ गिल्ली 4. चिप्पी गिल्ली, 5. बदी गिल्ली या बुटईल 6. झोंकउल गिल्ली 7. बनउला।

Read More

लाठी से संबंधित लोक खेल

 "लाठी" किसी लोक खेल का नाम नहीं है किन्तु छत्तीसगढ़ी लोक खेलों की विशिष्ट परम्परा में इसका महत्वपूर्ण स्थान है इसे 'डंडा',बोंगा, 'लकड़ी' और 'लउठी' भी कहा जाता है। प्राचीनकाल से ही मानव समाज में लाठी का प्रचलन रहा है। प्रहार एवं आत्मरक्षण के दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण साधन स्वरूप स्वीकृत था। अधिकांश पुरूष अपने साथ एक लाठी रखते थे। यदि यात्रा दूसरे गांव या परदेस की हो तो लाठी अनिवार्य हो जाता था। लाठी नेत्रहीन एवं वृद्वावस्था का अवलम्ब होता है वहीं पर बच्चों के लिए खेल हेतु सामग्री। इसी तरह लाठी का महत्व एवं उपयोगिता कृषक एवं चरवाहे के लिए अन्यों से पृथक होता है।

हमारे जीवन मे लाठी की उपयोगिता क्या है। कितना महत्वपूर्ण है ? यह बात स्पष्ट होती है कविलाठी में गुण बहुत है
सदा राखिये संग ।
गहरे नद नाले जहां
तहां बचावे अंग ।
तहां बचावे अंग
झपटि कुत्ता को मारे ।
दुश्मन दावागीर
ताउको मस्तक झारे ।
कह गिरधर कविराय
सुनो धूरि के बाठी ।
सब हथियारन छाड़ि
हाथ में लीजे लाठी ।

लाठी को लोक खेलों का महत्वपूर्ण एवं दुर्लभ सामग्री में से एक कहा जा सकता है क्योंकि लाठी सहज रूप से प्राप्त नहीं होती। इसे अनेकों पेड़ों में ढुढने के बाद, उसमें चढ़कर, किसी धारदार हथियार से काटना होता है। डंडा सूख जाने के बाद ही काम मे लाया जाता है।

डंडा से संबंधित सम्पूर्ण खेल दुच्छ लोक खेलों की श्रेणी मे आती है और लगभग सर्वाधिक खेल सामूहिक है जिसके लिए लंबा चौंड़ा मैदान भी अनिवार्य है। डंडे की प्राप्ति पेड़ से होती है इसलिए इसे पेड़ से संबंधित लोक खेल भी कहा जा सकता है । डंडा से संबंधित लोक खेल पुरूष प्रधान खेल है। इसीलिए समाज मे यह खेल अत्याधिक लोकप्रिय भी है।

खेलों के नाम - 1. चुहउल 2. मटकी फोर 3. गिल्ली से संबंधित गिरधर की उक्त कुंडली से ....

Read More

गोटा से संबंधित लोक खेल

 गोटा या पत्थर के छोटे छोटे टुकड़ों (लगभग आठ दस ग्राम का) से खेले जाने वाले खेलों को "गोटा" का खेल कहा जाता है। उक्त खेल गिट्टी से भी खेला जा सकता है। वर्तमान समय में गिट्टी का उपयोग अत्यधिक हो रहा है क्योंकि यह सरलता से उपलब्ध हो जाती है। इस खेल की परम्परा हजारों वर्ष पुरानी है । छत्तीसगढ़ प्रदेश में भादो माह की कृष्णपक्ष में तीजा-पोरा का त्यौहार मनाया जाता है। इस त्यौहार का यहां विषेश महत्व है। विवाहित महिलाओं को इस त्यौहार में उनके मायके वाले ले जाते हैं। माना जाता है कि पति के लिए विवाहित महिला उपवास रखती है किन्तु छत्तीसगढ़ में विधवा महिला द्वारा किये जाने वाले इस व्रत को देखकर कहा जाता है कि मायके पक्ष की सुख-समृद्धि के लिए महिलाएं तीजा उपवास करती हैं। यहां की महिलाएं कहती है - तीजा जीयत-मरत के उपास ये । इस दिन मनोरंजन का प्रमुख साधन गोटा का खेल होता है। इस खेल का प्रचलन अन्य क्षेत्र व प्रांत में भी मिलता है किन्तु उदभव के संबंध में लिखित उल्लेख अप्राप्त है। सम्भवतः परिश्रम पश्चात् थकान मिटाने बैठी महिलाएं अपने आस-पास पड़े हुए गोटों को छेड़ा होगा और उसमें मनोरंजन की संभावना परिलक्षित हो गयी होगी। ऐसा स्पष्ट होता है कि इसकी उत्पत्ति स्वाभाविक रूप से हुई है किन्तु रूप निर्धारण में किसी मनीषी का योगदान रहा है। कोई भी एक हाथ से एक गोटा को आकाश की ओर फेंककर, जमीन पर पड़े हुए एक या एक से अधिक गोटा को उसी हाथ से बीनकर फेंका हुआ गोटा को ऊपर ही ऊपर पकड़ लेना गोटा की प्रक्रिया है। आकाश की ओर फेंका गया गोटा "चुम्मुल" कहलाता है।गोटा नारी प्रधान खेल है। अबोध बालिका से लेकर विवाहिता तक इस खेल को उत्साहपूर्वक खेलते हैं। नारी लोक खेलों में गोटा ही मात्र ऐसा खेल है जिसमें वृद्ध महिलाएं भी मनोरंजन कर लेती है। सभी वर्गों द्वारा खेले जाने के कारण नारी खेलों में गोटा का विषेष महत्व है और महिला वर्ग में सबसे अधिक लोक प्रिय । इस खेल से अशिक्षित महिलावर्ग को गिनती का ज्ञान हो जाता है, जो महत्व का विषय है ।

दुच्छ लोक खेलों की श्रेणी में आने वाली गोटा खेल के लिए किसी तरह के मैदान की आवश्यकता नहीं होती । इसके खिलाड़ी किसी भी चबुतरा, आंगन, बरामदा या बंद कमरे में भी सहज रूप से खेल लिया करती हैं। एक से अधिक खिलाड़ी साथ साथ खेलते हैं फिर भी यह व्यक्तिगत अर्थात एकल लोक खेल कहलाता है, क्योंकि इसके खिलाड़ी क्रमवार खेलती हैं एक साथ नहीं। फत्ता या पुकाने की प्रक्रिया गोटा के खेलों में प्रचलित नहीं है। किन्तु प्रारंभ करने को लेकर उठने वाली विवाद की स्थिति में फत्ता कर लिया जाता है। गोटा खेलों की महत्वपूर्ण विशेषता यह है कि इसे एक ही स्थान पर बैठ कर खेला जाता है वह भी मात्र हाथों से । इसमें जीतने के लिए हाथों की फुर्ती ओर नजर का तेज होना अनिवार्य होता है उतना ही अधिक समय भी महत्वपूर्ण होता है क्योंकि चुम्मुल के गिरने से पहले गोटा को बीनना पड़ता है। इसे समय, हाथ और आंखों का संयुक्त खेल कहा जा सकता है। गोटा सामग्री प्रधान खेल है । गोटा के बिना उक्त खेलों की कल्पना नहीं की जा सकती । झेलार दाम की आनंद से परिपूर्ण इन खेलों में लक्ष्य भी होता है। जिसकी प्राप्ति ही खेल है ।

छत्तीसगढ़ी लोक खेलों की विशाल स्वरूप में गोटा वह खेल है जिसे खेल की अपेक्षा कौशल कहना अत्याधिक सार्थक और सशक्त होगा।

यहां इसके दो रूप प्रचलन में है जो इस तरह से है ।

1. आठी 2. सतगोटिया

Read More

फोदा और घरघुदिंया

  छत्तीसगढ़ की लोक संस्कृति में लोक खेलों की विविधता व्यापक रूप में है । विविधता के कारण ही ग्रामीण जीवन में मनोरंजन होता है । ग्रामीण, ग्रीष्म काल में गिल्ली डंडा से आनंद उठाते हैं तो वर्षा ऋतु में खीलामार, फल्ली या फिर गेंड़ी से । प्रत्येक लोक खेल स्वरूप, सामग्री या शैली के कारण एक दूसरे से पर्याप्त भिन्न होते हैं । ऐसे लोक खेलों की परम्परा भी विकसित हुई जिसका नाम एक ही है किन्तु खेलने की शैली में कुछ अंतर होते हैं जैसे बिल्लस, चूड़ी, गिल्ली-डंडा, बांटी व भौंरा में मिलते हैं।
'फोदा' और 'घरघुंदिया' दो ऐसे लोक खेल हैं जिनका ग्रामीण जन जीवन में एक नहीं बल्कि दो-दो स्वरूप प्रचलित है । दोनों ही स्वरूपों में ऋतु, सामग्री व शैली के दृष्टिकोण से पूर्णत: असमानता है । कहा जाय तो दूर -दूर तक दोनों में कुछ भी संबंध नहीं। फोदा और घरघुंदिया से संबंधित लोक खेल निम्नांकित दो वर्गो में बंटा हुआ है -
गीली मिट्टी से संबंधित
मनुष्य जन्म से पूर्व मां की कोख में खेलता है तो जन्मोपरान्त वंचित कैसे रह सकता है। मां के आंचल से खेला। चलने की प्रेरणा मिली तो जो वस्तु सामने मिली उसी से खेला। परिणामस्वरूप चूड़ी से संबंधित, लाठी से संबंधित, जैसे ही अनेकों लोक खेल आस्तित्व में आ गये । इसी क्रम में बच्चों ने गीली मिट्टी में भी मनोरंजन तलाश किये और कलान्तर में गीली मिट्टी से संबंधित दो खेल प्रचलित हो गये-
1. फोदा 2. घरघुंदिया
दोनों लोक खेलों के स्वरूप एक दूसरे से पृथक हैं किन्तु दोनों का संबंध वर्षा ऋतु से है। ग्रामीण बच्चे आज भी इस खेल से आनंद उठाते हैं । वर्षा ऋतु में इस खेल की लाकप्रियता आप ही आप बढ़ जाती है।

विपरीत मौसम से संबंधित

गीली मिट्टी से संबंधित लोक खेल "फोदा और घरघुंदिया" के विपरीत मौसम में भी पृथक स्वरूप लिए हुए लोक खेल की परम्परा विकसित हुए हैं जिसे ही विपरीत मौसम से संबंधित फोदा और घरघुंदिया लोक खेल कहा जा रहा है। इस श्रृंखला में दोनों ही खेल बच्चों से संबंधित है और दोनों ही सामग्री पर आधारित है।

Read More

बांटी से संबंधित लोक खेल

 भारतीय लोक खेलों की समृद्ध परंपरा में "बांटी" लोक खेल की स्वरूप समृद्ध है। बांटी दो प्रकार की होती है। एक वह जो कांच से बना होती है जिसे "कंचा या कच्ची बांटी" कहते हैं। दूसरा रेत सीमेंट से निर्मित रहती है जिसे "रेम या पक्की बांटी" कहते हैं। ग्रामीण दोनों को ही बांटी कहते हैं और बांटी शब्द ही प्रचलन में अत्याधिक है। शहरी क्षेत्र में बांटी के लिए " गोली" शब्द का संबोधन किया जाता है । सरगुजा क्षेत्र में इसे 'आन्टा' कहा जाता है ।
बांटी का आकार, कंचा हो या रेम गोल होता है किन्तु दोनों में एक दूसरे का आकार भिन्न होता है। कंचा बांटी छोटा होता है और रेम लगभग उससे दोगुना बड़ा होता है। रेम की अपेक्षा कंचा में आकर्षण अत्याधिक होता है कारण कि कंचा के अंदर रंगों का उपयोग किया होता है। कंचा और रेम का वजन लगभग पांच से पन्द्रह ग्राम तक होता है । दोनों तरह की बांटी बाजार में हमेशा उपलब्ध होती हैं। आर्थिक पक्ष के रूप से बांटी की बिक्री उल्लेखनीय है ।

 

हिन्दुस्तान के प्रत्येक प्रान्तों में इसका प्रचलन मिलता है। स्वरूप पृथक-पृथक हो या समान हो इसे एक क्षेत्र का खेल नहीं कहा जा सकता है । छत्तीसगढ़ प्रदेश में बांटी का विविधतापूर्ण स्वरूप मिलता है। ऋतु कोई भी हो यह खेल सरलतापूर्वक खेला जा सकता है। मूल रूप से बांटी वर्षा ऋतु का खेल है। पानी और कीचड़ के कारण इस ऋतु में अनेक लोक खेलों से ग्रामीण वंचित रह जाते हैं । किन्तु बांटी वह सामग्री है जिसे सदैव ही पेंट या शर्ट की जेब में रखा जा सकता है । वर्षा ऋतु में ऐसा ही होता है। जहां पर भी थोड़ा सा समतल और सूखा स्थान मिल जाता है। वहां पर बांटी का खेल प्रारम्भ कर दिया जाता है। खिलाड़ियों की संख्या चार- पांच हो तो देर तक इस खेल का आनंद उठाया जा सकता है । खिलाड़ी बांटी का खेल जमीन पर उकरूं बैठकर ही खेलता है । जमीन पर बैठकर खेले जाने वाला खेल गोटा के सदृश्य बांटी भी हाथ और नजर पर केंद्रित होता है। इस खेल के लिए खिलाड़ियों में निशाना साधने की क्षमता अनिवार्य होती है वहीं उंगलियों का कुशल संचालन भी होता है। बांटी वर्षा ऋतु का खेल है। वर्षा ऋतु में गाय और भैंस की पूंछ के बालों पर मिट्टी चिपक जाती है। चिपका हुआ मिट्टी कुछ दिनों बाद बांटी की भांति गोल हो जाता है । मिट्टी का यह आकार बाल से निकलता नहीं है इसीलिए बाल को काट दिया जाता है । सम्भवत: मिट्टी के इस आकार से ही बांटी लोक खेल का उदभव मानव जीवन में हुआ होगा। बांटी लोक खेल का उदभव कब व कहां हुआ ये प्रश्न हो सकता है किन्तु इसकी परंपरा कई हजार वर्ष पुरानी है इस बात का प्रमाण महाभारत काल में है। भगवान श्री कृष्ण ने जब गज रूपी राक्षस का वध किया तब उक्त हथियार बांटी ही था ।

बांटी पुरूष खेलों में से एक है। अन्य पुरूष खेल गिल्ली व भौंरा के समकक्ष इसका नाम उल्लेखित किया जा सकता है । छत्तीसगढ़ प्रदेश में बांटी से संबंधित अनेकों लोक खेल मिलते हैं । सभी लोक खेलों को दो भागों में रखा जा सकता है ।

1. समूहिक लोक खेलों का स्वरूप लिये हुये बांटी के खेल -
1- कच्ची-पक्की 2- दस-बीस 3- पंचडुबिया
2. दलीय लोक खेलों का स्वरूप लिए हुए बांटी के खेल-
1- घेरा बांटी 2- कोत-कोत

बांटी से संबंधित इन खेलों का वर्णन करने से पूर्व जानना अनिवार्य है बांटी मारने की प्रक्रिया-एक हाथ का अंगूठा, तर्जनी व मध्यमा उंगली से बांटी को ऐसा पकड़ा जाता है मानों भुईयां पर रखना चाहता हो । दूसरे हाथ के अंगूठे को भुईयां पर रखकर मध्यमा या तर्जनी उंगली से बांटी को सामने की ओर इस तरह फेंक दिया जाता है कि वह तीव्र गति से लक्ष्य पर पहुंचे। लक्ष्य अन्य खिलाड़ियों का बांटी होता है उक्त खेल में । इसके खिलाड़ी कम उम्र से ही बड़ों के खेल की अनुकरण करते हुए बांटी मारना सीख जाते हैं। बांटी मार लेना कौशल है। कोई कोई इतना अधिक पारंगत हो जाते हैं कि दस से पन्द्रह फूट दूर बांटी को मार (टीप) लेते हैं। यह मार कभी कभी इतना तेज होता है कि जिस बांटी को मारा गया है वह दो टुकड़ों में विभक्त हो जाती है।

बांटी से संबंधित प्रमुख शब्द - डुबुल, डुबाना, चोट, टीप, भुईयां, कच्ची, पक्की, मारना, मुरहा, पींद, कोत-कोत, बेंदा, सड़

Read More

चुडी से संबंधित लोक खेल

 भारतीय संस्कृति में चूड़ी का धार्मिक महत्व है। चूड़ी के पीछे पवित्र मान्यता है। महिलाओं की कलाईयों में कांच की चूड़ियां मात्र सौंदर्य ही नहीं सुहाग का प्रतीक होती है। अनमोल संपत्ति होती है। ग्रामीण जीवन में आज भी कांच की काली चूड़ियां, दैवी प्रकोप व जादू टोटका से बचाने वाली साधन की तरह मान्य है।
चूड़ी की खनक किसी के लिए संगीत का, किसी के लिए गीत का आधार और किसी के लिए सौभाग्य होती है। किन्तु टूट जाने के बाद वह इस तरह से फेंक दिया जाता है जैसे दूर दूर तक कोई संबंध न हो। ग्रामीण बच्चों ने उसी टूटे हुए चूड़ियों को इकट्ठा किया और खेल सामग्री बना दिया। परिणाम स्वरूप चूड़ी पर केन्द्रित दो तरह की खेल, परम्परा में प्रचलित हो गये

 

1. चूड़ी बिनउल 2. चूड़ी लुकउल
चूड़ी से संबंधित दोनों लोक खेल नारी प्रधान है अर्थात नारी खेलों की श्रृंखला में आती है। यहां "चूड़ी" से तात्पर्य है चूड़ी के छोटे-छोटे टुकड़े । दोनों खेल का पृथक पृथक अस्तित्व तो है साथ ही स्पर्धा की लक्षण भी इनमें समाहित है। चूड़ी से संबंधित लोक खेलों की प्रमुख विशेषता यह भी है कि इसके लिए न विशाल मैदान की आवश्यकता होती है और न ही आर्थिक नुकसान पहुचाने वाली सामग्री। यह खेल तो ऐसा है जिसमें कचड़ा भी महत्वपूर्ण बन गया है । जिससे बहुमूल्य मनोरंजन की अनुभूति खिलाड़ी सहज ही ले लेते हैं। चूड़ी से संबंधित लोक खेलों की व्युत्पत्ति उस काल से मानी जा सकती है जिस काल से चूड़ी का प्रचलन मानव जीवन में हुआ है । सांस्कृतिक एवं आर्थिक दृष्टिकोण से चूड़ियों की बिक्री का महत्वपूर्ण स्थान है किन्तु खेल के दृष्टिकोण से कोई भी स्थान नहीं है।

Read More

भौंरा से संबंधित लोक खेल

 भारतीय लोक खेलों की परम्परा में भौंरा का स्थान विशिष्ट है। इसे सरगुजा क्षेत्र में 'लट्टू' के नाम से और रायपुर के आसपास 'भुन्नाटी' के नाम से भी जाना जाता है। फूलों पर मंडराने वाले भौंरों की गुंजन से पारम्परिक खेल 'भौंरा' का नामकरण हुआ है। भौंरा जब भूमि पर एक ही स्थान में अपनी धुरी पर तीव्र गति से घूमता है तब फूलों पर मंडराने वाले 'भ्रमर' जैसी मन मोह लेने वाली ध्वनि उत्पन्न करता है । इसी समय भौंरा की गति इतनी अधिक होती है कि वह अपनी धुरी पर संतुलित हो जाता है और जब धीरे-धीरे दायें-बायें झूलता है तो आभास होता है मानों किसी फूल पर भ्रमर बैठा हो। छत्तीसगढ़ प्रदेश के ग्रामीण जन-जीवन में भौंरा से संबंधित सुंदर गीतों का प्रचलन मिलता है। गीत के कारण इस पुरूष प्रधान खेल का लोक साहित्य में विशिष्ट स्थान बन गया है। भौंरा का गीत, भौंरा से निकलने वाली ध्वनि पर केंद्रित है जो गाने और सुनने दोनों में ही आकर्षक है ।

गीत...
लावर म लोर-लोर, तिखुर म झोर-झोर
राय झुम-झुम बास पान, हंसा करेला पान
सुपली म बेलपान, लट्ठर जा रे भौंरा
भुन्नर जा रे

भौंरा का निर्माण लकड़ी से होता है जिसके निचले हिस्से में कील लगी होती है । कील को 'आरी' कहा जाता है जो चित्र में स्पष्ट है । सामग्री के दृष्टिकोण से भौंरा के अतिरिक्त एक रस्सी होती है। उक्त रस्सी को 'नेती' कहा जाता है। भौंरा चलाने के लिए सूती कपड़े का बनाया हुआ नेती अधिक उपयुक्त होती है। भौंरा का आकार खिलाड़ियों के इच्छा पर निर्भर करता है और आरी की लम्बाई व मोटाई भौंरा के आकार पर । उक्त दोनों पर निर्भर होती है नेती की लम्बाई व मोटाई। पेड़ से उपयुक्त लकड़ी का चुनाव करके धारदार हथियार से काटना और भौंरा का स्वरूप प्रदान करना हर एक व्यक्ति के लिए संभव नहीं । खासकर इनके खिलाड़ियों के लिए संभव है ही नहीं। भौंरा बनाने का कार्य बढ़ई करता है। इसके बाद भी यह लोकप्रिय है। वर्तमान समय में बाजार में भौंरा उपलब्ध हो जाता है। इस खेल में सशक्त प्रदर्शन हेतु खिलाड़ियों को चाहिए कि वह शीघ्र अतिशीघ्र भौंरा पर नेती 'नेत' (लपेट) सकें। एक निश्चित स्थान पर हर बार चला सके और प्रतिद्वंदी के भौंरा को मार सके। भौंरा चलाना एक कला है और इसमें निपुण होना खिलाड़ियों की योग्यता है। भौंरा तीरछी या सीधी नहीं चलाना चाहिए। भौंरा को खड़ा चलाने से ही उचित रहता है। छत्तीसगढ़ में भौंरा के खिलाड़ी तीन तरह से आनंद उठाते हैं। भौंरा के तीन स्वरूप प्रचलित हैं ।
1.चांदा 2. नौगोदिया 3. रट्ठ

Read More

बिल्लस से संबंधित लोक खेल

 छप्पर में लगने वाले खपरा के छोटे से टुकड़े या मिट्टी के बर्तन का टुकड़ा या फिर पत्थर के चौड़ानुमा टुकड़ा को पारम्परिक खेल में "बिल्लस" कहा जाता है। बिल्लस को 'चालतुल' के नाम से भी जाना जाता है।बिल्लस एक सामग्री है और उसी के नाम से खेल को भी जाना जाता है । उक्त खेल में मात्र एक बिल्लस होता है। नारी लोक खेलों की श्रंखला में इसका स्थान उल्लेखनीय है। 21वीं सदी के तीस-चालीस वर्ष पूर्व को लें, तो रायपुर-दुर्ग जिले के मैदानी भाग में, शायद ही कोई मध्यम वर्गीय महिला होगी जिसने बिल्लस को न खेला हो। एक पैर को घुटने से पीछे की ओर मोड़कर, दूसरे पैर के सहारे उछल-उछल कर चलना 'लंगरची' कहलाता है। लंगरची की प्रक्रिया पर ही बिल्लस का खेल आधारित है ।

 

"बिल्लस" प्रत्येक मौसम में खेले जाने वाला एकल लोक खेल है जिसमें थोड़े से अंतर के साथ दो स्वरूप मिलते हैं-
1. बिल्लस-गीतिक लोक खेल के रूप में
2. बिल्लस-दुच्छ लोक खेल के रूप में

Read More

गोटी से संबंधित लोक खेल

 अतीतकाल में मानव ने उसे भी खेल का स्वरूप दे दिया जो उन्हें अपने आसपास दिखाई पड़ा। खेल के लिए किसी भी सामग्री को किसी भी स्तर से तौला नहीं है। मनोरंजन की प्रधानता को ध्यान में रखते हुए जो भी सामग्री उपयुक्त लगी सहज ही स्वीकारते गये । जहां उन्होने चूड़ी के टुकड़े, खप्पर के टुकड़े व गोटा से संबंधित खेलों की परंपरा हमें दी है वहीं गोटी से संबंधित खेलों का प्रचलन भी दिया गया है। गोटी अर्थात गोटा से बहुत ही छोटा टुकड़ा। गोटी से संबंधित लोक खेलों हेतु मैदान की आवश्यकता नहीं होती। इसके अन्तर्गत आने वाली सभी खेल दुच्छ लोक खेलों की श्रेणी में आती हैं जिसे घर के अंदर या छोटे से चबूतरे में खेला जाता है।एकल लोक खेलों की परंपरा वाले इन खेलों में सामग्री के नाम पर मात्र गोटी होती है । जिनकी संख्या भी सुनिश्चित होती है। एक गोटी की अधिकता या कमी से खेल पूर्ण नहीं होता। गोटी के इन खेलों में भागने या कूदने की प्रक्रिया नहीं होती संपूर्ण खेल में मात्र एक हाथ का ही उपयोग होता है। इन खेलों को बौद्धिक वर्गो का खेल कहा जा सकता है क्योंकि इनमें मस्तिष्क का प्रबल होना अनिवार्य होता है।

गोटी से संबंधित अनेक लोक खेलों का अस्तित्व प्रचलन में हैं जिन्हें दो वर्गो में रखा जा सकता है।

1. गोटी से संबंधित मारने की प्रक्रिया से परिपूर्ण लोक खेल ।
2. गोटी से संबंधित विविधता पूर्ण प्रक्रिया वाले लोक खेल ।

उक्त दोनो वर्गो में गोटी की उपस्थिति को समानता कहा जाय तो अन्य पक्षों में असमानता बहुतायत है। जिसका वर्णन क्रमश: किया जा रहा है ।

गोटी से संबंधित मारने की प्रक्रिया से परिपूर्ण लोकखेल
सीधा, आड़ा या तिरछा एक क्रम में तीन घर। प्रथम व द्वितीय घर में गोटी तथा तीसरा घर खाली है तो प्रथम घर की गोटी को एक घर लांघकर अर्थात तीसरे घर में रखना ही दूसरे घर की गोटी को मारना है । लांघने की प्रक्रिया एक घर की होती है। वह भी तीसरा घर खाली हो तो। उक्त नियमावली खेलों को ही गोटी से संबंधित मारने की प्रक्रिया से परिपूर्ण लोक खेल कहते हैं जो परंपरा में निम्नलिखित हैं:-

1. नौगोटियां 2. सोलह या अट्ठारह गोटियां 3. गोटीमार

दुच्छ एवं एकल लोक खेलों की श्रृंखला वाली इन खेलों में खिलाड़ियों की संख्या समान होती है। किन्तु गोटी की संख्या में समानता नहीं होती । जहां इन खेलों के खिलाड़ियों की मानसिकता समान होती है वहीं खेल के ग्राफ समान नहीं होते। खिलाड़ियों का उदेश्य होता है अपनी श्रेष्ठ चाल चलकर सामने वाले की गोटी मारना। गोटी से संबंधित इस वर्ग के खेल बच्चों के बजाय युवाओं व बुजुर्गो में अत्याधिक प्रचलित है कहा जाय तो यह बच्चों का खेल नहीं है।

Read More

लंगरची की प्रक्रिया से संबंधित लोक खेल

लोक खेलों में शरीर के विभिन्न अंगों की अहम् भूमिका होती है। अलग-अलग खेलों में अलग-अलग अंग कार्य करते हैं। यदि संबंधित अंग को निष्क्रिय कर दिया जाय तो उक्त खेल का आनंद संभव नहीं। उस खेल को सहज ही नहीं खेला जा सकता। इसीलिए तो घान्दी-मुन्दी में, दोनों हाथ को पंख की भांति फैलाना पड़ता है। नख्खी लोक खेल मे उंगलियों का काम होता है। उसी तरह पैर का भी विशेष स्थान है। वह है लंगरची। एक पैर को मोड़ कर खेलने की इस प्रक्रिया को ही 'लंगरची' कहते हैं। खिलाड़ी, कोई भी एक पैर को घुटने से पीछे की ओर मोड़ता है दूसरे पैर से उछल कर चलता है। इस समय शरीर का संपूर्ण भार एक ही पैर पर होता है। लंगरची केवल लड़कियों का खेल है अर्थात लंगरची से संबंधित सभी लोक खेल नारी खेल की श्रृंखला में आते हैं। लंगरची का उल्लेख दाम में भी हुआ है।

 

छत्तीसगढ़ में प्रचलित लंगरची की प्रक्रिया से संबंधित लोक खेल निम्नलिखित हैं -
1. लंगरची दौड़ 2. लंगरची छुअउल 3. कोयल 4. बिल्लस 

Read More

ध्वनि से संबंधित लोक खेल

जन्मोपरान्त शिशु जब ऑंखें खोलता है तो प्रथम दर्शन के रूप में पृथ्वी,आकाश, मानव और पर्यावरण होता है। मानव एवं पर्यावरण के माध्यम से शिशु नये जगत से साक्षात्कार करने लगता है। धीरे-धीरे अनुभव करने की क्षमता में वृद्धि होने लगती है। देखकर किसी मानव या वस्तु को पहचानने के साथ ही ध्वनि के माध्यम अदृश्य अस्तित्व को जानने-समझने लगता है और यहीं से जागृत होती है मनोरंजन की इच्छाएं व अपेक्षाएं। ध्वनि ही खेल स्वरूप् प्रारम्भिक तौर पर आकर्षित करती है इसलिए मां भी आंख मटकाने के साथ पुचकारती है। विभिन्न तरह की आवाज निकालती है । शिशुओं को ध्वनि अधिक प्रभावित करती है इसलिए बाजार में अधिकतम खिलौने ध्वनियुक्त होते हैं ।

 

पशु-पक्षियों की बोली भी शिशुओं को आनंदित करती है।शिशुओं के बढ़ने के साथ ध्वनि से संबंधित अस्तित्व को जानने-समझने का क्षेत्र भी बढ़ने लगता है। इस बात को पृथक नहीं किया जा सकता है कि ध्वनि उत्पन्न करने वाले सम्पूर्ण वाद्य व लोक संगीत का उद्येश्य ही मनोरंजन है। मनोरंजन हेतु मानव की अपेक्षाएं उन्हें विभिन्न दिशाओं में लेती गयीं। जोड़ती गयीं और लोक संस्कृति में ध्वनि से संबंधित निम्नांकित लोक-खेलों का प्रचलन हो गया ।
ध्वनि से संबंधित प्रमुख लोक खेल इस प्रकार है:-

1. चरखी 2. तुतरू 3. कुकरा-कुकरी 4. फोदा 

Read More

तारा से संबंधित लोक खेल

  पारंपरिक खेलों की सम्पन्नता और विकसित स्वरूप की संपूर्ण दर्शन सम्भव नहीं किन्तु तारा से संबंधित लोक खेलों से अनुमान होता है कि मनोरंजन की आवश्यकता इतनी अधिक थी कि पूर्वजों ने तारा को भी खेलों का आधार बना दिया। तारे भले ही गगन में होते हैं और रात्रि में दिखाई पड़ते है किन्तु लोक खेलों के रूप में प्रत्येक क्षण लोक जीवन में होते हैं। ये स्पष्ट नहीं कि तारा का चित्रांकन चित्रकारों ने कब से किस तरह किया । लोक खेलों की परंपरा को देखते हुए ज्ञात होता है कि तारा का चित्रांकन हजारों वर्ष पूर्व हो चुका है। जो लोक खेल के रूप में इस तरह से हैं । चित्रानुसार तारा में पांच कोन तथा पांच मिलन बिन्दु होते हैं । दोनों मिलकर दस घर होते हैं। उक्त घर ही खेल में उपयोग किये जाते हैं। उत्थान और पतन प्रकृति का नियम है

वर्तमान समय में तारा से संबंधित दो लोक खेलों की परंपरा मिलती है:-

1. तिग्गा

2. बग्गा
उक्त दोनों तरह की लोक खेलों में सामग्री की प्रधानता है। दुच्छ लोक खेलों की श्रृंखला में आने वाले दोनों खेल किसी भी मौसम से संबंधित नहीं हैं। यह बच्चों की अपेक्षा युवा या उससे भी सजोर वर्ग में अत्याधिक प्रचलित हैं। 'तिग्गा' और 'बग्गा' दोनों ही खेल नाम से एक लय में हैं किन्तु स्वरूप व खेलने की प्रक्रिया में समानता नहीं है। दोनों ही एकल लोक खेल हैं फिर भी खेलने की प्रक्रिया भिन्न-भिन्न।

Read More

छू छूवउल की प्रकिया वाले

 सहज, सरल व लोक प्रिय खेलो में से एक हैं छू - छूवउल ! छत्तीसगढ़ प्रदेश ही नहीं अन्य प्रान्तों में भी उक्त खेल का प्रचलन है I वैसे तो यह खेल प्रत्येक मोसम में खेला जाता है किन्तु ग्रीष्म कल में इसकी लोकप्रियता बढ़ जाती है I इस खेल में छोटे बच्चे ही सम्मिलित होते हैं I छत्तीसगढ़ प्रदेश में छू-छूवउल की प्रक्रिया वाले खेल

तीन तरह से प्रचलित है :-

१. थल में

२. जल में

३. पेड़ पर

 

छू - छूवउल से सम्बंधित तीनों ही खेलों का स्वरुप सामूहिक है I प्रक्रिया एक सी है किन्तु स्थान में ही परिवर्तन हुआ है I तीनों ही खेलों में सामग्री का प्रचलन नहीं हैं I

Read More

गेंद से संबंधित लोक खेल

लोक खेलों की परम्परा कई हजार वर्ष पुरानी है इस बात का प्रमाण महाभारत में मिलता है। महाभारत काल में जहां शकुनी चौसर खेला करता था वहीं भगवान श्रीकृष्ण द्वारा कंचा, गेंद, डंडा-पचरंगा खेलने का उल्लेख मिलता है। भगवान श्रीकृष्ण का बालपन ग्रामीण बालकों की तरह व्यतीत हुआ है। बालपन में न जाने कितने लोक खेलों को खेला होगा जिसका महत्वपूर्ण घटनाओं से संबंध न होने के कारण उल्लेख नहीं हुआ। उल्लेखित लोक खेलों में 'गेंद' का स्थान सर्वोच्च है । गेंद का आड़ लेकर भले ही जमुना में नाग नाथ दिये थे किन्तु वर्तमान युग के लिए वह वरदान सिद्ध हुआ। वर्तमान समय में प्रचलित अनेकानेक खेलों का जन्मदाता गेंद ही है। गेंद जिसे 'बाल' और छत्तीसगढ़ के ग्राम्य जीवन मे 'पूक' कहा जाता है। कृष्णकाल में गेंद से कितने खेलों का अस्तित्व स्थापित हुआ कहा नहीं जा सकता । सम्भवतः गेंद को पैर से खेला गया तब 'फुटबाल' की कल्पना कर ली गई ।

 

हाथ से हवा में उछालने की कल्पना की गई तो 'बालीबाल' और 'हैंडबाल' का स्वरूप बन गया। इसी तरह जब गेंद को लकड़ी से खेला गया तब 'हाकी', 'क्रिकेट' व 'गोल्फ' का स्वरूप विकसित हो गया। कोई भी खेल का वर्तमान स्वरूप लोक खेलों से प्रेरित है और गेंद से संबंधित अनेकों लोक खेल भारत की संस्कृति में प्रचलित है ।
यहां प्रश्न उठता है कि अतीत में जब कम्पनियां नहीं हुआ करती थी तब गेंद कैसे उपलब्ध होती रही होगी । यथार्थ में लोक खेलों के प्रेमियों ने अवाश्यकतानुसार गेंद को जन्म दिया है। वे पुराने कपड़ो को लपेटकर रस्सी से बांध देते थे। पुराने कपड़ो से बना गट्ठा ही गेंद के रूप में काम आ जाता था। गेंद से संबंधित कितने लोक खेल भारत की विभिन्न प्रदेश व अंचल में विकसित हुए होंगे और कितने लुप्त हो गये इसका वर्णन कहीं नहीं मिलता। छत्तीसगढ़ प्रदेश की लोक संस्कृति में मात्र दो खेल हैं जो गेंद पर ही निर्भर है -
1. गिदी गादा
2. पिट्टूल 

Read More

पेड़ के पत्तो से संबंधित लोक खेल

 पेड़ो की दुनिया में आंवला, महुआ, आम, पीपल व बरगद का पेड़ देव तुल्य है। हिन्दु धर्म में यह पेड़ पूजनीय है। इन पेड़ों की लकड़ी को चूल्हे में जलाया नहीं जाता। जलाया जाता है तो पूजा-हवन के रूप में । छत्तीसगढ़ में इन पेड़ों के महत्व को दर्शाता एक तथ्य प्रचलित है -

बर काटे बईमान, पीपर काटे चंडाल

कोई भी बच्चे, वर्ग भेद या असमानता से परिचित नहीं होते। उनकी नजर में प्रत्येक पक्ष मनोरंजन प्रदान करने वाला होता है। जहां पेड़ के उपर-छू-छुवउल व चुहउल नामक लोक खेल का प्रचलन मिलता है वहां पेड़ के पत्ते कैसे अछूते रहते । परम्परा में पत्तों से संबंधित लोक-खेल भी विकसित हुए हैं। यह खेल मात्र आम, पीपल व बरगद के पेड़ से संबंध रखते हैं। ऐसे लोक खेल निम्नलिखित हैं -


1. फिलफिली 2. पानालरी 3. तुतरू
पेड़ के पत्तों से संबंधित संपूर्ण लोक खेल व्यक्तिगत अर्थात एकल लोक खेलों की श्रेणी में आते हैं। इनकी परंपरा को हजारों वर्ष पूर्व माना जा सकता है। अन्य मौसम में प्रायः कम ही देखने को मिलता है परंतु ग्रीष्म ऋतु में इन खेलों का प्रचलन बढ़ जाता है ।

Read More

अंक से संबंधित लोक खेल

 लोक खेलों के दृष्टिकोण से छत्तीसगढ़ प्रदेश समृद्ध है, सम्पन्न है । उक्त तथ्य की पुष्टि करती है यहां की संस्कृति में प्रचलित अंकों का खेल। चूड़ी, बिल्लस, पानी या पत्तों से संबंधित खेलों की उपस्थिति को सामान्य मान सकते हैं। जब अंकों से संबंधित लोक खेलों का वृहत स्परूप मिलता है तो संस्कृति सामान्य नहीं रह जाती । अंक शुन्य से नौ तक जो भी हो, खेल की प्रक्रिया पूरे अंक पर निर्भर करती है।
अंक से संबंधित खेल-
1.चोर-सिपाही 2. हुर्रा-बाघ 3. जोड़उल

Read More

पानी से संबंधित लोक खेल

लोक खेलों का क्षेत्र असीमित है घर की चार दीवार से गाँव के विशाल मैदानी भागों तक ही इनका अस्तित्व है ये कहना अनुचित ही होगा । मानव का जहाँ भी हस्तक्षेप रहा वहीँ पर मनोरंजन के साधनों की तलाश की। कुछ एक साधन ऐसे भी थे जो अनजाने में मानव के साथ हो गये । मनोरंजन का उद्देश्य है मन की तृप्ति। स्थान घर हो,गाँव हो,खेत हो,खलिहान हो,चाहे दिन या रात हो,मानव अपना मनोरंजन करता है। इसी क्रम में जल भी एक खेल का साधन बन गया ।

हिन्दु धर्म में प्रतिदिन स्नान करना अनिवार्य माना गया है। यही कारण है कि पानी से संबंधित लोक खेल प्रत्येक मौसम, प्रचलन में होता है। यदि तलाब में पानी की मात्रा अत्यधिक होती है तो इसके खेलों का आनन्द भी दुगुना हो जाता है। सर्वाधिक लोक खेल बच्चों के अधीन है। पानी से संबंधित खेल भी बच्चों में लोकप्रिय हैं।

 

लोक खेलों में पानी से संबंधित लोक खेलों का स्थान विशिष्ट है। विशिष्ट इसलिए नहीं की खेल थल के बजाय जल में होता है। विशिष्ट इसलिए है कि शारीरिक व मानसिक विकास हेतु जल में किया जाने वाला अधिकतम व्यायाम खेल के तहत होता है। ग्रामीण बच्चे,किसी अन्य लाभ को केन्द्रित न कर मनोरंजन के रूप में ही व्यायाम का लाभ उठाते हैं। ग्रामीण जीवन में प्रत्येक व्यक्ति ऐसे व्यायाम से अज्ञानता वश गुजरता है ऐसे व्यक्ति न के बराबर होंगे जिसे अछूता कहा जाय।

पानी से संबंधित लोक खेलों को दो वर्गों में रखा जा सकता है जो निम्नांकित हैं -
१. पानी के अन्दर विकसित लोक खेल
२.पानी के बाह्य भागीय लोक खेल

पानी के अन्दर विकसित लोक खेल
पानी से संबंधित पानी के अन्दर विकसित लोक खेलों में प्रतिभागी थल को स्पर्श नहीं करता। सम्पूर्ण खेलों का प्रारंभ और अंत पानी में ही होता है।ऐसे खेलों में सामग्री का प्रचलन नहीं है।

१.चित्ता-तउर,२.पनबुड़ी, 3.छितउल , ४.कुकरा-कुकरी,५ छू-छुवउल

पानी के बाह्य भागीय लोक खेल
पानी से संबंधित पानी के बाह्य भागीय लोक खेलों में,खिलाड़ियों को थल से भी संपर्क होता है । इस वर्ग में खेल का आधा हिस्सा जल में तो आधा थल में संपन्न होता है।ऐसे खेलों के नाम - १.कूद,२.खपरैल 

Read More

खपरा से संबंधित लोक खेल

  खपरा एक सामग्री है जो मिट्टी के घर के छज्जे में लगाया जाता है। छज्जा में लगाने वाला खपरा खेलने के लिए उपयोग में नहीं लाया जाता है। खपरा का उपयोग तब होता है जब वह टूट कर व्यर्थ हो जाता है। इसी तरह मिट्टी के बर्तन के टुकड़ों को भी खपरा माना जाता है । खपरा के दोनों रूप सहज ही उपलब्ध हो जाते हैं किन्तु छज्जा के लिए खपरा तथा मिट्टी के बर्तन सरलता से मिलते नहीं है। दोनों ही सामग्री कुम्हार (पांड़े) जातियों द्वारा बनाई जाती है। उपयोग के चलते जब वह टूट जाता है और अनुपयोगी समझकर फेंक दिया जाता है तब बच्चों के लिए खेल की सामग्री बन जाता है। चूड़ी से सम्बंधित लोक खेलों की भांति खपरा भी व्यर्थ वस्तु होकर भी सदुपयोगी बन गया है। खपरा से संबंधित लोक खेलों की परम्परा को हजारों वर्ष पूर्व मान सकते हैं क्योंकि मिट्टी से बनाने वाले विभिन्न आकार के पात्रों का प्रचलन हजारों वर्ष पूर्व से ही मानव जीवन में हुआ है।

खपरा से सम्बंधित लोक खेल निम्नलिखित हैं -

 

१. फल्ली,२. बिल्लस,३. पिट्टूल,४. खपरैल.

Read More

खिलाड़ियों की निष्चित संख्या वाले सामूहिक लोक खेल

 लोक खेलों में आधिकाधिक खेलों का स्वरुप सामूहिक है। सामूहिक लोक खेलों के स्वरुप में भिन्नता है। जैसे सामग्री प्रधान,पूक से सम्बंधित या छू लेने की प्रक्रिया वाले।

चूँकि भिन्नता है तो ऐसे भी खेल मिल जाते हैं जिनमे खिलाड़ियों की संख्या कम या आधिक नहीं हो सकती।

उनमें खिलाड़ियों की संख्या निश्चित रहती है।ऐसे लोक खेलों में है :-

1.कोंटूल

2.फल्ली

3.तरोईफूल

4.खम्भा

5.चोर -सिपाही

6..हुर्रा-बाघ

7.पच्चीसा

8.चौसर

Read More

गीत प्रधान लोक खेल

 खेल गीतों के लिए लोक खेलों की परम्परा में 'गीतिक लोक खेल' शब्द की संज्ञा दी गयी है जिसके विषय में पूर्ण वर्णन, पूर्व में दिया जा चुका है।
छत्तीसगढ़ लोक खेलों का प्रदेश है । सैकड़ों लोक खेलों की परम्परा यहाँ विकसित हुई है वहीं अन्य क्षेत्रों से आये लोक खेलों को भी सहज ही स्वीकारा गया है फलतः पारम्परिक खेलों का स्वरुप यहाँ वृहत हो गया है।छत्तीसगढ़ प्रदेश में गीतिक लोक खेलों की परम्परा व्यापक है। इसके अनेक रूप मिलते हैं। अधिकाधिक गीतिक लोक खेलों का स्वरुप सामूहिक है।खेल के गीतों में मानवीय संवेदनाओ का अदभुत दर्शन होता है। कहीं कहीं पर मानव की भावनाओं को संप्रेषित करने का माध्यम सा आभास होता है। इस बात से नाकारा नहीं जा सकता कि खेल गीत लोक का सुनिश्चित वरदान है जो बार-बार मानव को नवीन या पृथक रूप में प्राप्त नहीं होगा।खेल ही गीत है गीत ही खेल, उन खेलों के लिए कहा जा सकता है जिनमे प्रचलित गीत को खेल से अलग नहीं किया जा सकता । ऐसे खेल गीत है -पोसम-पा,घांदी - मुंदी ,इल्लर-डिल्लर,अटकन-मटकन। छत्तीसगढ़ में ऐसे खेल मिलते हैं जिनका गीत से सीधा सम्बन्ध नहीं होता है।सम्बन्ध होता है तो मात्र भावो से। इस श्रेणी के खेलों से गीत को पृथक करके भी मनोरंजन प्राप्त किया जा सकता है अर्थात गीत के बिना भी खेल संभव है। ऐसे खेल हैं- फुगड़ी ,भौंरा,खुडुवा। गीतिक लोक खेल में कुछ ऐसे भी खेल हैं जिसके गीत में लय की प्रधानता नहीं होती है।गीत का उच्चारण संवाद की तरह होता है। इस संवाद में लय के लक्षण कहीं-कहीं पर मिलते हैं।

ऐसे खेल हैं - डंडी - पौहा, इल्लर-डिल्लर, जांवर-जीयर तथा दार - भात।

छत्तीसगढ़ में प्रचलित खेलगीत
१. अजला-बजला ,२. चुन-चुन मलिया,३. अटकन-मटकन,४. गोल-गोल रानी, ५.घांदी - मुंदी, ६. पोसम-पा, ७. खुडुवा, ८. नख्खी,९. कोबी,१०. चिकि-चिकि बाम्बे ,११.फुगडी, १२. डंडी - पौहा, १३. इल्लर-डिल्ल्लर, १४.जांवर-जीयर, १५. दार - भात, १६. झुलना, १७. भौंरा, १८. पच्चीसा

Read More

भरवा से संबंधित लोक खेल

  छत्तीसगढ़ी लोक खेलों की असीमित समृद्घ परम्परा में 'भरवा' से संबंधित खेलों का भी प्रचलन मिलता है। भरवा से सम्बंधित लोक खेलों का प्रचलन इस बात का प्रमाण है कि मनोरंजन प्रत्येक क्षण हर एक पहलु पर है। मात्र प्राप्त करने वालों में इच्छा हो । भरवा से जुड़े खेलों के कारण घास-फूस की भी लोक खेलों कि परम्परा में उपस्तिथि दर्ज हो जाती है जैसे पेड़,छाया,पानी,पत्थर के टुकड़े ,पुराने कपड़े, चूड़ी के टुकड़े आदि

'भरवा' एक जंगली घास है । गाँवों में खलिहान के दीवारों (भांडी) पर उक्त घास मिल जाती है। भरवा का पौधा बरसात में उगता है ,कुंवार -कार्तिक माह में सूखने लगता है। देखने में यह पौधा गन्ने की तरह होता है किन्तु उससे बहुत ही पतला व कमजोर होता है।

 

भरवा के छिलके का किनारा, पत्ती (ब्लेड) कि तरह धारदार होता है इसीलिए ग्रामीण महिलाएं , जचकी (छेंवारी) के समय बच्चा का 'नारफूल' को काटने में उपयोग करती आ रही हैं। भरवा का पौधा सुख जाता है तब कृषक उसका उपयोग खेत व खलिहान में झोपड़ी (खोंधरा) बनाने में करता है । भरवा से संबंधित खेलों के प्रचलन आदि से यह मानव समाज के लिए वरदान है किन्तु सावन-भादो में यदि पशु खा जाये तो अभिशाप बन जाता है। भरवा खाए हुए पशु को बचाया नहीं जा सकता। भरवा का अनेकानेक उपयोग ग्रामीण जीवन में होता होगा किन्तु लोक खेल के क्षेत्र में इससे सम्बंधित |

दो तरह के खेल मिलते है -
१. हस्त कला के रूप में , २. संडउवा ।

Read More

छू-छुवउल की प्रक्रिया से संबंधित सामूहिक लोक खेल

 ग्रामीण जीवन में प्रचलित अधिकाधिक लोक खेलों का स्वरुप सामूहिक है । इनमे भी अधिकांश ऐसे हैं जिनमे लड़के व लड़कियां साथ-साथ खेला करते हैं। बच्चों के सम्मिलित रूप में विकसित लोक खेलों में सामग्री की प्रधानता हो, चाहे गीतयुक्त हो,छू लेने की प्रक्रिया प्रायः मिल ही जाती हैं। कुछ एक खेल मात्र छू लेने की प्रक्रिया वाले हैं तो कुछ एक खेलों में उक्त प्रक्रिया के लक्षण विद्यमान हैं ।किसी खिलाड़ी को दौड़ा कर छूना कष्टप्रद होता है। कष्टप्रद स्थिति ही खेलों के लिए अहम स्थान है। खिलाडी इस स्थिति से साफ़ बचना चाहते हैं। बचने का प्रयास ही उन्हें आनंदित करता है । उक्त आनंद ही दाम और खेल का निचोड़ है।छू लेने की प्रक्रिया से संबंधित प्रत्येक सामूहिक खेलों में एक समानता अनिवार्य रूप से होती है,वह है फत्ता का प्रचलन । एक हत्थी,संखली या अंगरी तीनो में से कोई भी एक फत्ता का उपयोग किया जाता है। फत्ता में कोई भी खिलाड़ी असफल होता है। असफल खिलाड़ी दाम देता है।यदि एक खिलाड़ी द्वारा दाम लेने से संबंधित हो तो भी फत्ता किया जाता है। छू-छूवउल का खेल पेड़ ,जल व थल में मिलता है जिसका वर्णन पूर्व में दिया गया है। छू लेने की प्रक्रिया वाले उस खेल से ही अनेक खेलों का प्रचलन हुआ है। जिसे छू-छूवउल की प्रक्रिया से सम्बंधित सामूहिक लोक खेल कहते हैं

जो निम्नलिखित है -
१. नदी पहार, २. संखली , ३. टेकन, ४. आंधी-चपाटी, ५. परी-पखरा, ६. बघुवा ७. घाम -छाँव, ८. कोयल, ९. सोना चांदी, १०. बीरो, ११. आती-पाती, 12 संडउवा

Read More

सामग्री विहीन सामूहिक लोक खेल

  उदभव काल से वर्तमान काल तक न जाने लोक संस्कृति में कितने लोक खेलों की परम्परा विकसित हुई और कितनी लुप्त हो गईं कहा नहीं जा सकता है। घर में, घर के बहार में, चौपाल में , खुले मैदान में, जल और पेड़ों में अनेक लोक खेल आज भी मिलते हैं । सभी खेल किसी न किसी बिंदु पर आधारित होते हैं जैसे-ऋतु पर, जल में तथा सामग्री पर। लोक खेलों के प्रेमियों व निर्माताओं ने छोटी से छोटी व व्यर्थ वस्तुओं को खेल का भी आधार बनाया है। जिसमें चूड़ी के टुकड़े,बिल्लस, पूक, पेड़ के गिरे हुए पत्ते प्रमुख हैं। इसी तरह कठिन वस्तुओं को भी खेल के रूप में विकसित किया है जैसे गिल्ली, भौरा व चौसर। जिस तरह अनेकानेक लोक खेलों में सामग्री को महत्त्व दिया गया है। उसी तरह ऐसे खेल भी हमें दिए गए हैं जिनमे किसी भी तरह की सामग्री नहीं होती। खेल परम्परा के चलते आज भी ऐसे खेल संरक्षित है ।

 

सामग्री विहीन सामूहिक लोक खेल निम्न लिखित हैं :-
१. रेसटीप, २. सियाम-सुलुलुलू, ३. टेकन, ४. सोना-चांदी, ५. परी-पखरा, ६. घाम -छाँव, ७. अटकन-मटकन, ८. संखली , ९. डंडी - पौहा, १०. बघुवा, ११. इल्लर-डिल्ल्लर, १२. गोल-गोल रानी, १३. जांवर-जीयर, १४. लंगरची, १५. नदी-पहार,

Read More

विभिन्न ऋतुओं से संबंधित लोक खेल

छत्तीसगढ़ का अधिकांश क्षेत्र वन संपदा से घिरा हुआ है जहां के निवासी रोटी के लिए और बिमारी से जूझते रहे हैं। छत्तीसगढ़ के मैदानी क्षेत्रों में कृषि की प्रधानता है। वनवासी की भांति मैदानी क्षेत्र के रहवासी भी आभाव पूर्ण जीवन यापन करते रहे हैं। यहाँ के ग्रामीण आर्थिक रूप से कभी भी आत्मनिर्भर न हो सके । ग्रामीणजन, मालगुजार, गौंटिया या दाऊ के आधीन रहे हैं जहाँ भूमिहार (भूमिहीन) और छोटे कृषक मालगुजारों, गौटिया और दाऊ की सेवा में उलझे रहे वहीँ मंडल वर्ग ( ५ से १५ एकड़ का कृषक ) जीवन यापन हेतु अपने खेतों में डटे रहे हैं। कृषक व भूमिहार जहाँ अर्थसंग्रह में असफल रहते थे वहीं शिक्षा से वंचित थे। ऐसे ही परिवार के बच्चे अल्पायु से मेहनत -मशक्कत में लग जाते थे। बड़े बुजुर्ग सूर्य का दर्शन खेत-खलिहान में करते थे और घर की वापसी सूर्यास्त के पश्चात् । यही कारण है कि अल्पायु के बच्चे गाँव-गुड़ी में खेला करते थे या बड़े बुजुर्ग के साथ खेत खलिहान में। अधिकाधिक ऐसे लोक खेलों की परम्परा विकसित हुई है जो गाँव-गुड़ी या खेत - खलिहान के आसपास सरलता से खेले जा सकें ।

 

बच्चे सुबह से संध्या तक एक ही खेल को खेलते नहीं बल्कि समय परिवर्तन , सामग्री की उपस्तिथि व खिलाड़ियों की मानसिकतानुसार खेलों का चुनाव कर लेते हैं।
लोक खेलों की समृद्ध परम्परा में मौसम का भी प्रभाव रहा है । मौसम परिवर्तन के साथ ही खेलों के चुनाव में भी परिवर्तन हो जाता है। सैकड़ों हजारों वर्ष पूर्व ही ऐसे खेल मानव-जीवन में आ चुके थे जिन्हें एक ही ऋतु में खेलना संभव होता है। ऋतु के बदलने के साथ ऐसे खेलों को भुला दिया जाता है। मौसम से संबंधित प्रमुख लोक खेलों को निम्नांकित बिन्दुओं में रखा जा सकता है -

वर्षा ऋतु से संबंधित प्रमुख लोक खेल
वर्षा ऋतु में पानी के कारण मैंदान खेलने योग्य नहीं रह जाता है । गाँव की गली में कीचड़ जमा हो जाता है या पानी भर जाता है। बच्चे तो केवल खेलना चाहते हैं, पानी या कीचड़ के कारण चुप बैठा नहीं जा सकता। खेलने की चाह और उसकी पूर्ति से अनेक ऐसे लोक खेलों का उदभव लोक संस्कृति में हो गया जिन खेलों के लिए पानी या कीचड़ अड़चन न होकर साधन हो गए हैं। ऐसे भी लोक खेलों की परम्परा विकसित हुई है जिसे घर के अन्दर या चबूतरे में खेला जा सकता है । प्रमुख लोक खेल - १, गेंड़ी , २, कूचि, ३, खिलामार, ४, कोंटुल, ५,घरघुन्दिया, ६. फोदा, ७. फल्ली ,८. बांटी.

शीत ऋतु से संबंधित प्रमुख लोक खेल

छत्तीसगढ़ प्रदेश के ग्रामीण जीवन में, शीत ऋतु का समय उत्साह और उत्सव का होता है। यह समय धान की फसल की कटाई और मिंजाई का होता है। इस ऋतु में ठण्ड अधिक पड़ती है इसलिए बच्चे आग या धुप वाले स्थान पर एकत्रित होकर खेलते हैं। यहाँ की लोक संस्कृति में ऐसे बहुत से लोक खेलों का प्रचलन मिलता है जो शीत ऋतु में ही खेले जाते हैं। खेल का संबंध शीत या ठण्ड से नहीं होता किन्तु उसका प्रभाव बच्चों के शरीर और मन पर पड़ता है। प्रमुख लोक खेल :-
१. उलानबांटी, २. रस्सी कूद, ३.अल्लग कूद,

४. भौंरा, ५. गिदिगादा, ६. संडउवा, ७. चूड़ी लुकउल.

ग्रीष्म ऋतु से संबंधित प्रमुख लोक खेल

ग्रीष्म ऋतु में धूप तेज होती है और हवा गर्म हो जाती है। इस मौसम में छत्तीसगढ़ के ग्रामीण जन खेत खलिहान के कार्यों को विराम देकर विवाहोत्सव में भाग लेते हैं। बच्चों के लिए यह मौसम मात्र खेलने के लिए होता है। धूप तेज होने के कारण पानी से संबंधित पनबुड़ी ,चित्तातउर तथा छू - छुवउल खेल प्रतिदिन का अनिवार्य हो जाता है। मैदानी खेलों का प्रचलन बढ़ जाता है जिनमें गिल्ली-डंडा प्रमुख है। इस ऋतु में बच्चे देर रात तक गाँव की गली-गुड़ी में लोक खेलों का आनंद उठाते हैं। बीरो और अंधियारी-अंजोरी का खेल प्रायः खेलते हुए देखने को मिल जाता है। पानालरी और फिलफिली के लिए भी उत्तम समय ग्रीष्म होता है।

प्रमुख लोक खेल
१. भिर्री, २. पखरातूक , ३. गोटा, ४. गिल्ली- डंडा,

५. पच्चीसा, ६. चुहउल, ७. चूड़ी बिनउल. 

Read More

पर्व से संबंधित लोक खेल

 छत्तीसगढ़ की लोक संस्कृति में तीज -त्यौहारों का बड़ा महत्त्व है। प्रत्येक त्यौहार को ग्रामीण बहुत ही उत्साह और श्रद्धा से मानते हैं। इन त्यौहारों का अपना - अपना स्वरुप और मान्यता है । जो असाढ़ माह के जुड्वास से प्रारम्भ होती है।

ऋतु से संबंधित जहाँ अलग-अलग लोक खेलों की परम्परा मिलती है वहीँ विभिन्न तीज त्यौहारों से भी संबंधित लोक - खेल प्रचलित है।
पर्व से संबंधित लोक खेलों का अस्तित्व सीमित दिनों तक होता है । पर्व के साथ, संबंधित खेलों को भी भुला दिया जाता है । फिर वही प्रतिदिन के खेलों में बच्चे व्यस्त हो जाते हैं। वर्ष बीतता है । जैसे- जैसे तीज त्यौहार आती है। संबंधित खेल फिर प्रचलन में आ जाते हैं। ऐसे खेलों के पीछे धार्मिक मान्यता भी होती है और मनोरंजन भी। छत्तीसगढ़ में विकसित पर्व से संबंधित सर्वाधिक खेलों में युवा व सजोर व्यक्तियों की भूमिका होती है। इन खेलों का उद्देश्य भले ही मनोरंजन होता है किन्तु इन्हें प्रदर्शन का खेल ही कहा जा सकता है। इन खेलों में खिलाड़ी या प्रतिभागी के अलावा अनेक दर्शकगण द्वारा उत्साह को बढ़ावा मिलता है और खेल का आकर्षण बढ़ जाता है।

पर्व से संबंधित लोक खेल -


१. नारियल फेंक ,२. कुस्ती , ३. बइला दौड़, ४. पुतरा-पुतरी, ५. गेंड़ी, ६. मटकी फोर ।

Read More

दलीय लोक खेल

बच्चे झुण्ड के झुण्ड चलते हुए, दौड़ते हुए या बैठे हुए, मनोरंजन के लिए जो व्यवहार किया वही खेल बन गया । समूह के बच्चे, जब दो वर्ग में बंट कर खेलने लगे तो वहां पर दलीय लोक खेल की परम्परा विकसित हो गयी । लोक खेलों का उदभव मात्र मनोरंजन के लिए हुआ है । पुरस्कार या उपलब्धि के लिए नहीं । फलतः ऐसे लोक खेलों का प्रचलन कम ही हुआ जिनमें स्पर्धा की भावना जागृत होती हो । स्पर्धा या प्रतियोगिता के लिए मन को उद्वेलित करने का लक्षण दलगत खेलों में सर्वाधिक होता है। छत्तीसगढ़ की संस्कृति में दलीय लोक खेलों का प्रचलन अपेक्षाकृत कम हुआ है

जो उल्लेखित है -

१. पताड़ी-मार, २. रस्सी खींच, ३. भिर्री, ४. अल्लग-कूद, ५.कूचि, ६. पिट्टूल, ७. घेरा-बांटी, ८. गिल्ली- डंडा । 

Read More

अन्य सामूहिक लोक खेल

  छत्तीसगढ़ की लोक संस्कृति में, सामूहिक लोक खेलों की परम्परा सर्वाधिक विकसित हुई है। सर्वाधिक सामूहिक लोक खेलों के उदभव एवं विकास के पीछे बच्चों के बीच झुण्ड में रहने की प्रवृत्ति हो सकती है। बच्चे अकेले की अपेक्षा समूह में अधिक रूचि लेते हैं, इसलिए एकल लोक खेल भी सामूहिक लोक खेलों के सदृश्य बन जाते हैं। सामूहिक लोक खेलों को दो वर्गो में रखा गया है - पहला वह खेल जिनमे छू लेने की प्रक्रिया होती है और दुसरे वर्ग में उन खेलों को रखा गया है जिनमे सामग्री का प्रचलन नहीं है। कुछ ऐसे भी सामूहिक लोक खेलों की परम्परा इस भू- भाग में विकसित हुई है जो सामग्रीविहीन तथा छू लेने की प्रक्रिया वाले खेलों से भिन्न है

जैसे-
१. सगा-पहुना, २. पोनी-लुकउल, ३. धाय गोंड़, ४. पखरा तूक

Read More

व्यक्तिगत अर्थात एकल लोक खेल

  कोई भी खेल हो, एक व्यक्ति से संभव नहीं होता किन्तु कुछ लोक खेलों की प्रक्रिया इस तरह से होते है की एक खिलाड़ी, साथी खिलाड़ियों से स्वतंत्र हो जाता है। प्रत्यक्ष रूप से या सीधा-सीधा हस्तक्षेप नहीं करता । कभी-कभी ऐसा अनुभव होता है कि खिलाड़ी, किसी साथी के बगैर भी खेल का आनंद उठा सकता है। ऐसे खेलों को खिलाड़ी स्वतः ही प्रारंभ कर समाप्ति कर जाते हैं।

इस तरह के एकल लोक खेल छत्तीसगढ़ की अंचल में निम्नांकित है -
१. पंघुच्चा दौड़, २. खम्भा मार, ३. उलानबांटी, ४. फुगड़ी, ५. फिलफिली, ६. चरखी, ७. गेंड़ी, ८. पानालरी, ९. रस्सी कूद

Read More

गुंढुली से संबंधित

वृत्ताकार किसी वास्तु के ढुलने की प्रवृत्ति से ही 'गुंढुली ' लोक खेल अस्तित्व में आया I आज भी गाँव की गलियों में बच्चों को खेलते हुए कभी भी देखा जा सकता है I सैंकड़ों हजारों वर्षों से चली आ रही लोक खेलों में से गुंढुली भी एक है I गुंढुली एक तरह से नहीं खेला जाता I ग्रामीण व शहरीय जीवन में इसके कई रूप देखने को मिलते है I यह खेल सामग्री प्रधान है I इसके लिए सड़क ही उत्तम स्थान होता है क्योंकि गुंढुली खेलते हुए दूर तक जाना पड़ता है I

वर्तमान में प्रचलित गुंढुली को देख कर यह अनुमान लगता है की अतीत में इनका कोई और रूप प्रचलन में रहा होगा जो समय के साथ लुप्त हो चुका है I

गुंढुली एक सामग्री है जिसका रूप भिन्न -भिन्न होता है उसी तरह उन्हें खेलने का नियम या साधन भी भिन्न - भिन्न होते हैं I

 

१. सायकल की प्रचलन से ही दो तरह की गुंढुली अस्तित्व में आ गया I दोनों का सम्बन्ध पहिये से है I एक पहिये का रिंग व दूसरा उसमें लगने वाला टायर I सायकल के पहिये से जुदा दोनों ही सामग्री पुराना व व्यर्थ हो जाने के बाद खेल के लिए उपयोगी हो जाता है I टायर नरम होता है जो रबर से निर्मित होता है I इसे चलाने के लिए लकड़ी की आवश्यकता होती है I लकड़ी की लम्बाई अधिकतम एक फुट होती है I जो चित्र में दिखाया गया है I पहिये का टायर को लकड़ी से ठोकर मारकर आगे बढाया जाता है I टायर वृत्ताकार होता है इसलिए ढुलता जाता है I लकड़ी से ठोकर मारकर दांये या बांये दिशा में मोड़ा भी जाता है।

रिंग चादर से बना होने के कारण ठोस होता है I इसे भी चलाने के लिए एक फुट लम्बी लकड़ी की आवश्यकता होती है किन्तु ढुलाने की प्रक्रिया टायर से भिन्न होती है I चित्रानुसार रिंग के वृत्ताकार हिस्से में गड्ढा होता है जो टायर व ट्यूब लगाने के लिए बनाया गया होता है I खिलाडी उसी गड्ढे पर लकड़ी को खड़ा रखता है I लकड़ी का दूसरा सिरा निचे की ओर होता है I इस स्थिति में लकड़ी से बल लगाकर रिंग को आगे की ओर ढुलाया जाता है I

2. बोरिंग होने की शुरुआत के साथ उक्त गुंढुली का प्रचलन हो गया क्योंकि इसमें जो गोलाकार पत्थर लिया गया है वह बोरिंग खोदने पर जमीं के अन्दर से निकलता है I इस गुंढुली को चलाने की प्रक्रिया अन्य गुंढुली से पृथक है I यह कहा जाय की इसे बल लगाकर किसी साधन से आगे बढ़ाने के बजाय खिंच कर चलाया जाता है I 

Read More

पतंग

लोक खेलों की समृद्ध परंपरा में ' पतंग' का स्थान विशिष्ट है I इसलिए नहीं की यह हवा के साथ आकाश में उड़ती है बल्कि इसलिए की पतंग अंतर्राष्ट्रीय लोक खेलों में से एक है I पतंग के सम्बन्ध में कोई विशेष लिखित जानकारी उपलब्ध नहीं है I संभवतः पतंगा से ही इसका नाम पतंग पड़ा है I

भारत देश के विभिन्न प्रान्तों में पतंग की परंपरा है किन्तु उड़ने का मौसम सामान नहीं है I गाँवों में पतंग नहीं उड़ाई जाती है I इसका प्रचलन शहरों में मिलता है I छत्तीसगढ़ प्रदेश में इसका प्रचलन अधिकाधिक रायपुर में मिलता है I इस प्रदेश में पतंग उड़ने का समय है अप्रैल माह से अक्टूबर तक

 

पतंग साधारणतः युवा वर्ग ही उड़ाते है I अप्रैल - मई में स्कुल व कालेजों की परीक्षा समाप्त होते ही पतंग उड़ाना प्रारंभ कर देते हैं I ग्रीष्म ऋतु से प्रारंभ पतन पर्व का समापन , वर्षा ऋतु पश्चात् दशहरा के दिन होता है I दशहरा के दिन जिन स्थानों पर रावण का पुतला जलाया जाता है उन स्थानों पर मेला भरता है I पतंग प्रेमी भी इसी दिन जी भर कर , उक्त स्थान पर पतंग उड़ाते हैं I वैसे तो दशहरा से पतंग का कोई सम्बन्ध हो ऐसा तथ्य नहीं मिलता फिर भी इस दिन के बाद पतंग का उड़ाना पूर्णरूप से बंद हो जाता है I गुजरात प्रदेश में मकर संक्रांति के दिन पतंग उड़ाने की परंपरा है I

पतंग उड़ाने की शुरुआत कोई विशिष्ट व्यक्ति द्वारा या फिर तामझाम से नहीं होती I स्कुल व कालेजों की परीक्षा समाप्त होते ही, विद्यार्थी बच्चे मनोरंजन के अनेको साधनों में लिप्त हो जाते है I इसी क्रम में पतंग प्रेमी पतंग उड़ाने का शुभारम्भ कर देते हैं I कोई - कोई पतंग स्वयं बना लेते हैं तो कोई प्रेमी बीते वर्ष की पतंग सम्हाल कर रखते हैं I शहर में पतंग की दुकाने भी खुल जाती हैं जहाँ उसे सब कुछ बना - बनाया मिल जाता है I 

Read More

जसपुर और बस्तर क्षेत्र में लोक खेल

 छत्तीसगढ़ प्रदेश की उत्तर - पूर्वी क्षेत्र , प्रमुखतः अम्बिकापुर, कोरिया और जसपुर जिला , उत्तर प्रदेश और झारखण्ड की सीमा को छूते हैं I यह क्षेत्र पर्वतीय है और यहाँ वन की बहुलता है I छत्तीसगढ़ के इस भू-भाग के निवासियों की रहन-सहन , वेशभूषा और बोली मैदानी क्षेत्रों के सदृश्य नहीं है I ठीक इसी तरह लोक खेलों के सम्बन्ध में कहा जा सकता है I छत्तीसगढ़ में गिल्ली के लिए ईभ्भा शब्द का प्रचलन मिलता है वहीं जसपुर क्षेत्र में बिति शब्द का प्रचलन है I खेल गिल्ली-डंडा का ही है किन्तु पृथक-पृथक नाम से जाना जाता हैं I इसी तरह घर के अन्दर सरलता से खेले जाने वाला भोट्कुल को चालगोटी के नाम से जाना जाता हैं I मैदानी क्षेत्र का भोट्कुल और जसपुर क्षेत्र की चालगोटी के स्वरुप में पर्याप्त अंतर नहीं है I मैदानी क्षेत्र में भोट्कुल के लिए पांच-पांच डुबुल (गड्ढा) के दो क्रम होता है जबकि जसपुर क्षेत्र में सात-सात डुबुल के दो क्रम रखे जाते हैं I
गिल्ली अर्थात बिति और भोट्कुल अर्थात चालगोटी के आलावा और भी लोक खेलों की परंपरा पूर्वी छत्तीसगढ़ क्षेत्र में विकसित हुई है I संडउवा लोक खेल को इस क्षेत्र में गोबर्धन कहा जाता है I इसी तरह पिट्टुल को पिट्ठू , सांखली को होड़दा, भिर्री को धुर्रे,और चुहउल को झाड़ बेंदरा कहा जाता है I बांटी के लिए आंटा शब्द का तथा छू - छूवउल के लिए बीस शब्द का प्रचलन मिलता है I इस क्षेत्र के अन्य लोक खेल हैं - गादीतुवा, चट्टी-पक्की , बीटा व धंधा - मुंदी I
छत्तीसगढ़ का दक्षिण भाग भी वन सम्पदा व पर्वत से घिरा हुआ है जो बस्तर संभाग में आता है I यहाँ के निवासी , विकास की मुख्य धारा से आज भी बहुत पीछे हैं I आँध्रप्रदेश की सीमा को स्पर्श करते भू-भाग में आदिवासियों की बहुलतया है जो गोड़ी और हल्बी बोली से परिचित हैं I यहाँ की लोक संस्कृति में प्रचलित लोक खेलों को गोड़ी और हल्बी बोली में ही जानते हैं I जैसे गिल्ली शब्द के लिए है ईबा I इसी तरह गोटा से सम्बंधित खेल को कोंत,रेसटीप को लुकासाई , आन्धिचापाटी को कानाबोध, चुहउल को चिकलौंडी और भिर्री को नुनचोर कहते हैं I इस बस्तर के निवासी भौंरा , बांटी ,पिट्टुल तथा संडउवा लोक खेल से भी परिचित हैं । शीत ऋतु में यहाँ के बच्चे संडउवा अधिक खेला करते हैं , ऐसा ही ग्रीष्म काल में गोटीमार नामक खेल का प्रचलन अन्य खेलों से बढ़ जाता है I
छत्तीसगढ़ प्रदेश के जसपुर व बस्तर दोनों ही क्षेत्र में अनेक लोक खेलों का प्रचलन मिलता है I सभी लोक खेल सभी जिले या क्षेत्र में नहीं खेले जाते किन्तु गिल्ली - डंडा , भिर्री .भौंरा ,चुहउल,बांटी तथा संडउवा ऐसे खेल हैं जो मैदानी क्षेत्र में ही नहीं बल्कि जसपुर व बस्तर क्षेत्र में भी प्रचलित है I इन खेलों का स्थानीय बोली में नाम पृथक है किन्तु प्रकृति में पर्याप्त अंतर नहीं हैं I

Read More