"लाठी" किसी लोक खेल का नाम नहीं है किन्तु छत्तीसगढ़ी लोक खेलों की विशिष्ट परम्परा में इसका महत्वपूर्ण स्थान है इसे 'डंडा',बोंगा, 'लकड़ी' और 'लउठी' भी कहा जाता है। प्राचीनकाल से ही मानव समाज में लाठी का प्रचलन रहा है। प्रहार एवं आत्मरक्षण के दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण साधन स्वरूप स्वीकृत था। अधिकांश पुरूष अपने साथ एक लाठी रखते थे। यदि यात्रा दूसरे गांव या परदेस की हो तो लाठी अनिवार्य हो जाता था। लाठी नेत्रहीन एवं वृद्वावस्था का अवलम्ब होता है वहीं पर बच्चों के लिए खेल हेतु सामग्री। इसी तरह लाठी का महत्व एवं उपयोगिता कृषक एवं चरवाहे के लिए अन्यों से पृथक होता है।
हमारे जीवन मे लाठी की उपयोगिता क्या है। कितना महत्वपूर्ण है ? यह बात स्पष्ट होती है कविलाठी में गुण बहुत है
सदा राखिये संग ।
गहरे नद नाले जहां
तहां बचावे अंग ।
तहां बचावे अंग
झपटि कुत्ता को मारे ।
दुश्मन दावागीर
ताउको मस्तक झारे ।
कह गिरधर कविराय
सुनो धूरि के बाठी ।
सब हथियारन छाड़ि
हाथ में लीजे लाठी ।
लाठी को लोक खेलों का महत्वपूर्ण एवं दुर्लभ सामग्री में से एक कहा जा सकता है क्योंकि लाठी सहज रूप से प्राप्त नहीं होती। इसे अनेकों पेड़ों में ढुढने के बाद, उसमें चढ़कर, किसी धारदार हथियार से काटना होता है। डंडा सूख जाने के बाद ही काम मे लाया जाता है।
डंडा से संबंधित सम्पूर्ण खेल दुच्छ लोक खेलों की श्रेणी मे आती है और लगभग सर्वाधिक खेल सामूहिक है जिसके लिए लंबा चौंड़ा मैदान भी अनिवार्य है। डंडे की प्राप्ति पेड़ से होती है इसलिए इसे पेड़ से संबंधित लोक खेल भी कहा जा सकता है । डंडा से संबंधित लोक खेल पुरूष प्रधान खेल है। इसीलिए समाज मे यह खेल अत्याधिक लोकप्रिय भी है।
खेलों के नाम - 1. चुहउल 2. मटकी फोर 3. गिल्ली से संबंधित गिरधर की उक्त कुंडली से ....